झारखंड का इतिहास
झारखंड का शाब्दिक अर्थ है – जंगल झाड़ वाला क्षेत्र। मुगल काल में इस क्षेत्र को ‘कुकरा’ नाम से जाना जाता था। ब्रिटिश काल में यह झारखंड नाम से जाना जाने लगा। पुराण कथाओं को भी इतिहास का हिस्सा मानने वाले इतिहासकारों के अनुसार वायु पुराण में छोटानागपुर को मुरण्ड तथा विष्णु पुराण में मुंड कहा गया। महाभारत काल में छोटानागपुर का नाम पुंडरीक देश था। चीनी यात्री फाह्यान के 399 ई.मेंबौद्धग्रंथोंकीखोजमेंभारतआनेकाविवरणमिलताहै।वह411 ई. तक भारत में रहा। वह चंद्रगुप्त द्वितीय का शासन काल था। फाह्यान ने छोटानागपुर क्षेत्र को कुक्कुटलाड कहा। पूर्व मधयकालीन संस्कृत साहित्य में छोटानागपुर को कलिंद देश कहा जाता था। चीनी यात्री युआन च्यांग (630-644), ईरानी यात्री अब्दुल लतीफ (1600 ई.), ईरानी धर्माचार्य मुल्ला बहबहानी(19वीं सदी), बिशप हीबर (1824 ई.) के यात्रा-वृत्तांतों में भी छोटानागपुर और राजमहल का जिक्र है। मध्यकाल के इतिहास में यह चर्चा खास तौर से दर्ज है कि खोखरा देश में हीरे और सोना पाये जाते हैं।
बिहार डिस्ट्रिक्ट गजेटियर (हजारीबाग, अध्याय चार, पेज 65) में उल्लेख है कि असुरों का राजा जरासंध अपने शत्रुओं को पराजित कर झारखंड के जंगलों में छोड़ देता था। यह मानकर कि वे खूंखार जानवरों का शिकार हो जायेंगे। मुगलकाल के दस्तावेजों में झारखंड की ऐतिहासिक पहचान के प्रमाण मिलते हैं। इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया में झारखंड की भौगोलिक पहचान इस प्रकार की गयी है- ‘छोटानागपुर इन्क्लूडिंग द ट्रिब्यूटरी स्टेट्स आफ छोटानागपुर एंड उड़ीसा ईज काल्ड झारखंड इन द अकबरनामा।’ झारखंड ऐतिहासिक क्षेत्र के रूप में मध्य युग में उभर कर सामने आया। झारखंड का पहला उल्लेख 12वीं शताब्दी के नरसिंह देव (गंगराज के राजा) के शिलालेख में मिलता है। यह दक्षिण उड़ीसा में पाया गया है। उसमें दक्षिण झारखंड का उल्लेख है। यानी उस वक्त उत्तर झारखंड की भी पहचान थी, जो उड़ीसा के पश्चिम पहाड़ी जंगल क्षेत्रों से लेकर आज के छोटानागपुर, संतालपरगना, मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के पूर्वी भागों तक फैला हुआ था। उड़ीसा के पश्चिम क्षेत्रों के राजाओं को झारखंडी राजा कहा जाता था। 15वीं सदी के अंत में एक बहमनी सुलतान ने झारखंड सुलतान या झारखंडी शाह की पदवी ग्रहण की थी। उसका अर्थ यह है कि उस वक्त मधय प्रदेश के जंगल क्षेत्रों को भी झारखंड के नाम से जाना जाता था। झारखंड से होकर अनेक रास्ते उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश जाते थे। उन मार्गों से सेना, व्यापारी और तीर्थ यात्री गुजरते थे। ‘चैतन्य चरितामृत’ में उसका वर्णन मिलता है। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि शेरशाह की चेरों से जो लड़ाई हुई थी, वह झारखंड के मार्ग को लेकर थी, जो पूर्वी भारत को पश्चिम भारत से जोड़ता था। मध्य काल के बाद का इतिहास बताता है कि उस दौरान ही झारखंड की अवधारणा एक क्षेत्र विशेष के रूप में सिकुड़ने लगी। पंचेत से लेकर राजमहल तक का क्षेत्र झारखंड के नाम से जाना जाने लगा। उसमें रोहतास के किले से राजमहल के गंगा किनारे तक का क्षेत्रा भी शामिल था। हिंदू धर्म के प्रचार के दौरान वैद्यनाथ धाम के ‘बाबा’ भी झारखंडी महादेव कहलाये। बिहार विभाजन से बने अलग झारखंड के संदर्भ में तो देवघर का बाबा धाम अब दो राज्यों की दो विशिष्ट संस्कृतियों के संगम स्थल के रूप में अपनी पहचान बना सकेगा। लाखों शिव भक्तों द्वारा हर साल सावन में सुलतानगंज (भागलपुर, बिहार) में कांवर में गंगा का पानी लेकर देवघर (झारखंड) में शिव पर जल चढ़ाये जाने का नया अर्थ रेखांकित होगा। बंटने के बावजूद दो राज्यों के अन्योन्याश्रित सम्बंधों के सबसे बड़े प्रतीक ‘शिव’ होंगे! कुलमिलाकर’झारखंड’ क्षेत्र विशेष की सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पहचान का शब्द अब स्पष्ट भूगोल के जरिये परिभाषित हो रहा है।
झारखंड का प्राचीन काल झारखंड के विभिन्न जिलों में पुरातात्विक अन्वेषण किया गया है। उससे मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास की ‘जंगल-गाथा’ सामने आयी है। पुरातात्विक उत्खनन में पूर्व, मध्य एवं उत्तर पाषाणकालीन पत्थर के औजार और उपकरण बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। उनसे यह तो साबित होता ही है कि झारखंड में आदिमानव रहते थे। पुरातात्विक सामग्रियों के अध्ययन-विश्लेषण से उससे बड़ा यह तथ्य उभरता है कि झारखंड क्षेत्र में जनजीवन को मुख्यत: ‘जंगल’ ही सदियों से सभ्यता और संस्कृति की राह दिखाता आ रहा है। आम तौर पर मानव सभ्यता के विकास और उसकी रफ्तार के लिए ‘जल’ को मुख्य आधार माना जाता है। यानी माना जाता है कि नदियों की धाराओं ने मानव सभ्यता को दिशा दी। नदियों की अलग-अलग ‘प्रकृति’ ने मानवीय ‘संस्कृति’ को विविधता प्रदान की। झारखंड क्षेत्र में पुरातात्विक अन्वेषण से जो औजार और उपकरण मिले हैं, वे मैदानी या नदी-घाटी क्षेत्रों में प्राप्त सामग्रियों जैसे ही हैं लेकिन उनसे मानव सभ्यता-संस्कृति की ‘जल-यात्रा’ और ‘जंगल-यात्रा’ के बीच के फर्क को पहचाना जा सकता है। उससे खुद को प्रकृति का जेता मानने वाली आधुनिक संस्कृति और खुद को प्रकृति का सहयोगी मानने वाली आदिवासी संस्कृति के विभेद का विश्लेषण भी संभव है। सन् 1991 में हजारीबाग जिला के इस्को, सतपहाड़, सरैया, रहम देहांगी आदि स्थलों की खुदाई हुई। इस्को में एक समतल शिलाखंड पर प्रागैतिहासिक मानव द्वारा की गयी चित्रकारी का नमूना प्राप्त हुआ। दो प्राकृतिक गुफाओं का पता चला। गोला, कुसुमगढ़, बड़कागांव, बांसगढ़, मांडू, देसगार, करसो, पाराडीह, बरागुंडा, राजरप्पा एवं अन्य गांवों से पुरातात्विक अन्वेषण में पाषाणकालीन मानव द्वारा निर्मित पत्थर के औजार मिले। ये पूर्व पाषाणकाल, मध्य पाषाणकाल और उत्तर पाषाणकाल के हैं। इनमें कुल्हाड़ी, फलक, बंधनी, खुरचनी, बेंधक, तक्षणी आदि मुख्य हैं। पलामू जिला के शाहपुर, अमानत पुल, रंकाकलां, दुर्गावती पुल, बजना, वीरबंध, मैलापुल, चंदरपुर, झाबर, रांची रोड(लातेहार से 18 किलो मीटर रांची की ओर) में हाथीगारा एवं बालूगारा, नाकगढ़ पहाड़ी आदि स्थलों पर खुदाई में पूर्व, मध्य और उत्तर पाषाणकाल के साथ नव पाषाणकाल के पत्थर के औजार भी प्राप्त हुए। इनमें कुल्हाड़ी, स्क्रेपर, ब्लेड, बोरर और ब्यूरिम मुख्य हैं। भवनाथपुर के निकट प्रागैतिहासिक काल के दुर्लभ शैलचित्र प्राप्त हुए हैं। कई प्राकृतिक गुफाएं भी मिली हैं। उनके अंदर आखेट के चित्र हैं। उनमें हिरण, भैंसा आदि पशुओं के चित्र भी उकेरे हुए हैं। सिंहभूम जिला के लोटा पहाड़ नामक स्थल का उत्खनन पुरातत्व निदेशालय ने किया है। वहां भी पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। सिंहभूम में चक्रध्रपुर, वेबो, इसाडीह, बारूडीह, पूर्णपानी, डुगडुंगी, सेरेंगा, उलपाह, पफुलडुंगरी, तातीबे, चटकमर, कालिकापुर, आदि स्थलों पर भी पुरातत्व अन्वेषण कार्य हुआ है। इन स्थलों पर प्राप्त क्रोड, शल्क, खंडक, दोधरी खंडक, अर्धचंद्राकार, विदरायी, तक्षणी आदि पत्थर के हथियार प्रमुख हैं। बारूडीह के संजय एवं सोननाला के संगम स्थल पर पुरातात्विक उत्खनन से नव पाषाणकालीन मृद भांड के टुकड़े, पकी मिट्टी के मटके, पत्थर की हथौड़ी, वलय आदि प्राप्त हुए हैं। ईसा से एक हजार साल पूर्व की अवधि को नवपाषाण काल माना जाता है। बारूडीह से करीब तीन किलो मीटर पूरब डुगनी और डोर, चांडिल के निकट नीमडीह, नीमडीह रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर पूरब बोनगरा स्थल पर हाथ से बने मृद भांडों के टुकड़े, वलय प्रस्तर (रिंग स्टोन), पत्थर के मनके, कुल्हाड़ी आदि मिले हैं। बोनगरा के निकट बानाघाट स्थल पर नव पाषाणकालीन पांच पत्थर की कुल्हाड़ियां, चार वलय और पत्थर की थापी, पकी मिट्टी की थापी और काले रंग के मृद भांड के टुकड़े आदि मिले हैं। भारतीय पुरातत्व में असुर शब्द का प्रयोग झारखंड के रांची, गुमला और लोहरदग्गा जिलों के कई स्थलों की ऐतिहासिक पहचान के लिए प्रयुक्त होता है। आज भी लोहरदग्गा, चैनपुर, आदि इलाकों में असुर नामक जनजाति रहती है। वह लोहा गलानेवाली और लोहे के सामान तैयार करने वाली जाति के रूप में मशहूर है। उस जाति के पुरखे यहां बसते थे, उन स्थानों से ईंट से निर्मित प्राचीन भवन, अस्थि कलश, प्राचीन पोखर आदि प्राप्त हुए हैं। लोहरदग्गा में कांसे का एक प्याला प्राप्त हुआ है। उसे असुर से संबंध माना जाता है। पांडु में ईंट की दीवार और मिट्टी के कलश सहित तांबे के औजार मिले हैं। जमीन के नीचे से पत्थर की एक पट्टिका भी मिली है। यहां से एक चारपाये की ‘पत्थर की चौकी’ मिली है, जो पटना संग्रहालय में है। नामकुम में तांबे के कंगन, लोहे के औजार और बाण के फलक मिले हैं। मुरद से तांबे की सिकड़ी और कांसे की अंगूठी मिली है। लुपंगड़ी में प्राचीन कब्रगाह के प्रमाण मिले हैं। कब्रगाह के अंदर से तांबे के आभूषण और पत्थर के मनके भी प्राप्त हुए हैं। बिंदा, बुरहातू, चेनेगुटू, चाचोनवा टोली, जनुमपीड़ी, कक्रा आदि प्रागैतिहासिक स्थल हैं। इन स्थानों से पत्थर की रखानी और कुल्हाड़ी आदि मिली हैं। जुरदाग, परसधिक, जोजड़ा, हाड़दगा, चिपड़ी (विष्णुपुर से करीब तीन किलोमीटर नेतरहाट) आदि स्थलों से पुरापाषाण और उच्च पुरापाषाण काल के उपकरण मिले हैं। कोनोलको, सरदकेल, भल्लाउफंगरी आदि स्थलों से लघु पाषाणकालीन उपकरण मिले हैं। परसधिक में उच्च पुरापाषाण और लघु पाषाणकालीन उपकरणों के साथ-साथ मध्य पाषाणकालीन उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। पाषाणकाल के उपरोक्त पुरातत्व स्थलों के अतिरिक्त झारखंड में ऐतिहासिक काल के कई महत्वपूर्ण स्थल हैं। हजारीबाग में बाराकर नदी के पास दूधपानी नाम की जगह है। वहां से 1894 में कुछ अभिलेख मिले थे। लिपि के आधर पर अभिलेख का काल 8वीं शताब्दी माना गया है। दूधपानी के पास ही दुमदुमा है। वहां पालकालीन (8वीं से 12वीं शताब्दी) मूर्त्तियां, पत्थर के अवशेष और शिवलिंग प्राप्त हुआ है। चतरा के प्रतापपुर प्रखंड से करीब 12 किलोमीटर दक्षिण में कुंपा का किला है। इस किले का निर्माण मुगलकाल में किया गया। चतरा के हंटरगंज प्रखंड से करीब दस किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में कोलुआ पहाड़ है। यहां मध्यकालीन दुर्ग की एक चारदीवारी है। दुर्ग की लम्बाई 600 मीटर और चौड़ाई 450 मीटर है। दीवारों की मोटाई 5 मीटर और चौड़ाई 3 मीटर है। इसी कोलुआ पहाड़ यानी कोलेश्वरी पहाड़ के शिखर पर हिंदू देवी-देवताओं के साथ जैन तीर्थंकरों और बुद्ध की मूर्त्तियां हैं। चोटी पर पत्थरों को काट कर जैन तीर्थंकरों की मूर्त्तियां बनायी गयी हैं। स्थानीय लोग उन्हें हिंदू मान्यताओं के आधार पर दसावतार मानते हैं। उस पहाड़ी की तलहटी में स्थानीय लोगों के साथ सदियों से बसे हैं सिख समुदाय के लोग। वे बताते हैं कि यहां सिखों के प्रथम गुरु नानकदेव और बाद के गुरु भी पधारे थे। उनका निर्देश और आशीर्वाद पाकर ही उनके पुरखे यहां बसे और स्थानीय संस्कृति के अनुरूप अपने को ढाल लिया। आज भी कौलेश्वरी मंदिर और अन्यर् मूर्त्तियों के संरक्षक स्थानीय सिख परिवार के सदस्य हैं। हजारीबाग की पारसनाथ पहाड़ी तो जैन धर्मावलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। जैन मतानुसार जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को यहीं निर्वाण प्राप्त हुआ था। पहाड़ी की तलहटी मधुबन से लेकर पहाड़ी की चोटी तक कई जैन मंदिर हैं। उनका निर्माण 18वीं और 19वीं शताब्दी में किया गया। औरंगा नदी के तट पर बसे पलामू पर 17वीं शताब्दी से चेरो वंश के राजाओं का राज था। इस वंश के प्रथम शासक भागवत राय थे। उनका शासन 1613 ई. में शुरू हुआ था। इस वंश के सबसे प्रतापी राजा थे मेदिनी राय। गढ़वा से 16 किलो मीटर उत्तर-पूर्व में विश्रामपुर में एक गढ़ है। इसे पलामू के राजा जयकिशन राय के भाई नरपत राय ने बनवाया था। डालटनगंज के पास भी एक अधूरे किले के अवशेष हैं। इसे 18वीं शताब्दी में पलामू के ही राजा गोपाल राय ने बनवाना शुरू किया था लेकिन किला अधूरा रह गया। पलामू में पुराना किला और नया किला हैं। इतिहास की किताबों में दर्ज तथ्य के अनुसार पुराना किला से 12वीं शताब्दी की बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में एकर् मूर्त्ति मिली थी। चंदवा से 9 कि. मी. पर उग्रतारा मंदिर और हुसैनाबाद से 8 कि. मी. पूरब में अली नगर का किला या रोहिल्ला का किला भी पलामू क्षेत्र में राजनीतिक स्तर पर हुए उथल-पुथल का सबूत है। सिंहभूम जिला के दक्षिण पूर्व में बेनुसागर में हिंदू और जैन देवी-देवताओं की मूर्त्तियां बिखरी पड़ी हुई हैं। दो जैन तीर्थंकरों की मूर्त्तियां भी हैं। उनर् मूर्त्तियों का काल 7-8वीं शताब्दी माना जाता है। वहां एक तालाब है और उसके किनारे एक गढ़ का अवशेष भी। पूर्वी सिंहभूम जिला के बहरागोड़ा प्रखंड़ के गुहियापाल गांव में 10वीं-11वीं शताब्दी की मूर्त्तियां पायी गयी हैं। यहां प्राचीन काल में लोहा गलाया जाता था। पटमदा, सुपफरन, दालभूम गढ़, सारंडागढ़ , महुलिया, रौम आदि स्थलों पर प्राचीन दुर्ग और मंदिरों के भग्नावशेष हैं। रांची के पास चुरिया गांव में एक मंदिर है। उसकी चारदीवारी पर सन् 1727 का अभिलेख है। रांची शहर से ही करीब दस किलोमीटर पर फंची पहाड़ी पर स्थित जगन्नाथ मंदिर आज भी मशहूर है। उसकी ऐतिहासिक पहचान भी है। उसे सन् 1692 में छोटानागपुर के नागवंशी राजा ऐनीशाह ने बनवाया था। पूरे झारखंड में इस तरह बिखरे ऐतिहासिक अवशेषों, सांस्कृतिक साक्ष्यों और स्थापत्य कला की दृष्टि से उल्लेखनीय कृतियों से यहां के अतीत और लोकजीवन के विविध पक्षों को जाना जा सकता है। अगाध पुरातात्विक संभावनाओं वाले झारखंड राज्य के इतिहास, सामाजिक जीवन और सांस्कृतिक परम्पराओं को समझने के लिए व्यापक व गहन सर्वेक्षण, अन्वेषण और उत्खनन जरूरी है। अब तक जो हुआ है, उससे झारखंड के सम्पूर्ण ऐतिहासिक विकास क्रम को जान पाना संभव नहीं है। इतिहास के काल की कई कड़ियां अभी भी गुम हैं। इससे दीगर तथ्य यह है कि आम तौर पर इतिहास में राजाओं और राजव्यवस्था से जुड़ी घटनाओं और तारीखों का संकलन-आकलन होता है। इस दृष्टि से झारखंडी इतिहास में जो कुछ उपलब्ध है, उससे झारखंड के अतीत की मुकम्मिल पहचान नहीं बनती। जो सामग्री उपलब्ध है, उससे यह संकेत मिलता है कि झारखंड का इतिहास वहां के राजाओं से ज्यादा वहां की जनता ने बनाया। उपलब्ध तथ्यों और प्रमाणों से यह जान पाना भी मुश्किल है कि वहां के राजाओं और जनता के बीच क्या फर्क था? देश-दुनिया के इतिहास में वर्णित राजतंत्र के उत्थान-पतन की कहानियों और राजा-प्रजा के बीच के फर्क पर टिकी शासनिक अवधारणाओं से झारखंड के अतीत को पहचानना अब तक मुश्किल साबित हुआ है। उसे जानने-समझने के लिए नयी दृष्टि और पैमाने बनाने होंगे। राजा और प्रजा के बीच के फर्क से ज्यादा लोकजीवन ही झारखंड के इतिहास की पहचान का कारगर आधार बन सकता है।
मध्यकाल मधयकाल का इतिहास बताता है कि मुगल साम्राज्य तक छोटानागपुर का पठारी क्षेत्र दिल्ली या बाहरी सल्तनत के सीधे कब्जे से मुक्त था। वैसे, झारखंड के जनजातीय क्षेत्र के राजाओं का चरित्र और शासन-चिंतन भी मगध से लेकर दिल्ली तक के सम्राटों और शासन व्यवस्था से अलग था। इतना अलग कि बाहर के लोगों को आश्चर्य होता था कि जनजातीय राज में राजा और प्रजा को अलग-अलग कैसे पहचाना जाये। छोटानागपुर-संताल परगना से लेकर उड़ीसा-मध्यप्रदेश तक फैले जनजातीय क्षेत्र के लिए झारखंड शब्द का प्रयोग संभवत: मध्यकाल से ही शुरू हुआ। उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्रियों में 13वीं शताब्दी के एक ताम्रपत्र में इस क्षेत्र के लिए झारखंड शब्द का पहली बार प्रयोग मिलता है। झारखंड यानी वन प्रदेश। शासकों का इतिहास बताता है कि 13वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जनजातीय बहुल झारखंड क्षेत्र को छोड़ कर पूरे उत्तर भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुर्क शासन की नींव रख दी थी। छोटानागपुर पठार के मूल निवासी कौन थे, यह मालूम करना आसान नहीं है। यह संभावना भी व्यक्त की जाती है कि आज जिस आबादी को छोटानागपुर की मूल जाति के रूप में पहचाना जाता है, वह गंगा व सोन घाटी से बरास्ते पलामू पहुंची और वहां के मूल आदिवासियों को हटाकर खुद बस गयी। उन पुराने आदिवासियों का अब कोई नामोनिशान नहीं रहा। इस संभावना से जुड़े तथ्य भी हैं कि प्राचीन काल में उरांव और मुंडा जाति पश्चिमी भारत के नर्मदा तट से दक्षिण तक जाने के बाद उत्तरी और पूर्वी छोर से सोन घाटी आये और अंतत: छोटानागपुर पहुंच कर बस गये। इतिहास में आरंभिक आर्य जातियों के छोटानागपुर के पठारी क्षेत्र में आकर बसने की जानकारी नहीं मिलती। माना जाता है कि मगध साम्राज्य के उदय काल में आर्य बड़े पैमाने पर यहां बसने के ख्याल से नहीं आये। वे छोटे-छोटे जत्थों में व्यापारिक या धार्मिक मार्गों पर बसे थे। मानभूम के इलाके में इसके प्रमाण मिलते हैं। मध्यकाल के कई इतिहासकारों के अनुसार उस काल में छोटानागपुर जिस दायरे में था, उसे झारखंड यानी जंगल के देश के रूप में जाना जाता था। कहा जाता है कि उस जंगल में सफेद हाथी पाये जाते थे। किस्सा है कि शेरशाह ने सफेद हाथी लाने के लिए झारखंड राज के पास अपनी सेना की टुकड़ी भेजी थी। 1585 में अकबर की सेना ने झारखंड राजा पर आक्रमण किया था। उसके बाद से राजा ने अकबर को कर देना स्वीकार किया था। वैसे, उसके बाद भी झारखंड क्षेत्र पर कई हमले हुए लेकिन उन हमलों का असली मकसद वहां उपलब्ध हीरों पर कब्जा करना होता था। उस वक्त यह चर्चा भी दूर-दूर तक फैली हुई थी कि झारखंड राजा असली हीरों का सबसे बड़ा पारखी है। इस सिलसिले में जहांगीर के जमाने का ‘असली हीरे की पहचान के लिए भेड़ों की भिंड़त’ वाला किस्सा तो बेहद मशहूर है। 1616 में जहांगीर के शासन काल में हमला कर झारखंड राजा को गिरफ्तार कर लिया गया। उसे बंदी बना कर दिल्ली और ग्वालियर में रखा गया। मूल किस्सा यह है कि सम्राट जहांगीर एक बड़ा हीरा खरीदना चाहता था लेकिन अपनी जानकारी के आधार पर झारखंड राजा ने सूचना भेजी कि उस हीरे में कुछ खामी है। अपनी बात साबित करने के लिए उसने लड़ाकू भेड़ों की भिड़ंत का आयोजन किया। जिस हीरे को जहांगीर खरीदना चाहता था, उसे एक भेड़ के सिर में बांध गया और दूसरे भेड़ के सिर में दूसरा हीरा बांध गया, जो असली था। दोनो भेड़ों के बीच भिड़ंत हुई तो वह हीरा दो फांक हो गया, जिस पर झारखंड राजा ने उंगली उठाई थी। हीरा की असलियत जानने के लिए उसे हथौड़े से नहीं तोड़ा-फोड़ा जाता। हीरा जितना कड़ा होता है, उतना ही भुरभुरा होता है। फिर भी किस्सा तो कुछ ऐसा ही है। कहा जाता है कि जहांगीर इतना खुश हुआ कि उसने झारखंड राजा को रिहा कर दिया। झारखंड क्षेत्र के इतिहासकारों का मानना है कि मुगल सम्राट जहांगीर की सेना द्वारा झारखंड के तत्कालीन राजा दुर्जनशाल को हिरासत में लिया जाना झारखंड के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। उसके बाद से ही यानी मुगल शासन के आखिरी दिनों में मुसलमान बड़े पैमाने पर छोटानागपुर में आकर बसे। यहां के राजाओं ने कई हिंदुओं को भी बसाया। उन्हें कुछ गांव दान में दिये। उनमें से कुछ लोगों को सेना में भी लिया जाता था। डा. रामदयाल मुंडा के अनुसार मुगल सम्राट जहांगीर की सेना ने झारखंड के तत्कालीन राजा दुर्जनशाल को हिरासत में लिया और उन्हें ग्वालियर जेल भेज दिया। करीब 12 साल जेल में रहकर दुर्जनशाल निकले तो उनके दरबार में पश्चिमी राजाओं की नकल में झारखंड में भी राजसी ठाटबाट की स्थापना के लिए बाहरी लोगों का प्रवेश हुआ। पंडित-पुरोहित, सेना-सिपाही, व्यापारी और अनेक प्रकार के लोग राज-व्यवस्था के पोषक और आश्रित के रूप में आये। वैसे, 16वीं शताब्दी तक झारखंड में बाहरी आबादी के आने की गति धीमी रही। यहां के विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व का सम्बंध कायम रहा। यहां तक कि बाहर के लोगों के यहां आने और बसने के क्रम में उनका ‘आदिवासीकरण’ भी होता रहा। वे स्थानीय ‘सहिया’ और ‘मितान’ जैसी पद्धतियों के माध्यम से आदिवासी समाज के अंग बन गये। 1765 में झारखंड क्षेत्र में अंगरेजों के आने के बाद बाहर के लोगों के आने की प्रक्रिया तेज हुई। बाहरी लोगों के आदिवासीकरण की प्रक्रिया खत्म होने लगी। 1765 में बिहार, बंगाल और उड़ीसा जब ईस्ट इंडिया कम्पनी की दीवानी में शामिल कर लिये गये, तब छोटानागपुर अंग्रेजों के अधीन आ गया। हालांकि उसके छ: साल बाद तक भी अंग्रेजी हुकूमत यहां अपनी कोई सीधी प्रशासनिक व्यवस्था नहीं कायम कर सकी। उसके बाद भी 18वीं सदी के अंत तक इस क्षेत्र में राजस्व वसूली और कानून व्यवस्था लागू करने में अंग्रेजों को काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा। खास तौर से दक्षिणी मानभूम का क्षेत्र अंग्रेजों को लगातार चुनौती देता रहा। 19वीं शताब्दी के पूवार्ध में ही 1831 में प्रथम आदिवासी आंदोलन ‘कोल विद्रोह’ के रूप में फूट पड़ा और तबसे छोटानागपुर का इतिहास तेजी से बदलने लगा। झारखंड के संताल परगना क्षेत्र के मध्य व ब्रिटिश काल का इतिहास भी कम महत्वपूर्ण नहीं। यह पहाड़ियों से घिरा फंची पहाड़ियों वाला क्षेत्र है। इसकी मुख्य पहाड़ी शृंखला है राजमहल की पहाड़ियां। इसके उत्तरी छोर पर गंगा की घाटी है। गंगा समुद्र की ओर दक्षिण मुड़ने के पहले यहां पूरब की ओर मुड़ती है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण संताल परगना के उत्तरी क्षेत्र का इतिहास में विशेष महत्व रहा है। पहाड़ और नदी के बीच छोटा-सा गलियारा सामरिक दृष्टि से सेना की आवाजाही के लिए सबसे अनुकूल मार्ग था। यह सबसे संकीर्ण मार्ग ‘तेलियागढ़ी मार्ग’ के नाम से मशहूर था। यहां की प्रकृति ही ऐसी थी कि सेना को मोर्चा बनाने में आसानी होती थी। इस क्षेत्र पर जिस का कब्जा रहता था, वह खुद को अजेय समझता था। किलेबंदी के बाद तो यह क्षेत्र सामरिक दृष्टि से और मजबूत व सुरक्षित हो गया। भारतीय इतिहास के आंरभ से मुगल काल तक इस क्षेत्र का बहुत बड़ा भू-भाग वनों से आच्छादित था। मुगल शासकों के जमाने में यहां कई लड़ाइयां लड़ी गयीं। यहां तक कि शाहजहां अपने पिता जहांगीर के बागियों को दबाने के लिए यहां आया था। उसने बागियों को हरा कर बंगाल के नवाब इब्राहिम खान को मार डाला था। 1592 में अकबर के सेनापति और मंत्री मान सिंह ने राजमहल को बंगाल की राजधानी बनाया था। लेकिन दस साल बाद नवाब इस्लाम खान यहां से राजधानी को उठाकर ढाका ले गया। 1639 से 1660 तक राजमहल दोबारा राजधनी बना रहा। प्रारम्भ से इस क्षेत्र के मूल निवासी पहाड़िया रहे हैं। उन्हें ‘मालेर’ या ‘सौरिया पहाड़िया’ कहा जाता है। यह लड़ाकू और बहादुर जनजाति रही है। मुगल काल के शासकों के लिए पहाड़िया जनजाति सबसे बड़ा सिरदर्द थी। ब्रिटिश हुकूमत को भी इस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए नाकों चने चबाने पड़े थे। राजमहल से दक्षिण उधवानाला के पास 1763 में मेजर ऐडम्स की ब्रिटिश सेना और मीरकासिम की सेना के बीच भिड़ंत हुई। मीरकासिम की सेना मजबूत किलाबंदी कर मोर्चा संभाले हुए थी। उसकी सेना पहाड़ी और गंगा नदी के किनारे स्थित दर्रे को पार कर चुकी थी। प्रकृति ने किला को अजेय बना रखा था। दक्षिण के हिस्से को छोड़ कर किला बाकी सब ओर से पहाड़ी से घिरा था। एडम्स की सेना पस्त थी। उसने अंतत: रात को पहाड़ी के दक्षिण से हमला किया। हमलावर दस्ते ने अस्त्र-शस्त्र और बारूद को सिर पर रखकर दलदल को पार किया। रात और अधूरी तैयारी के बावजूद मीरकासिम की सेना ने अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। हालांकि उसकी जबर्दस्त हार हुई। आलम यह था कि पीछे से हमले से किला फतह के बावजूद अंग्रेजी सेना की मुख्य टुकड़ी देर तक सीढ़ी की मदद से दीवार तोड़ने के काम में मशगूल थी। अपनी जीत पर अंग्रेजी सेना खुद चकित थी। संताल परगना के पहाड़ी क्षेत्र और नीचे के दामिन-इ-कोह (वन ) क्षेत्र में संतालों ने बसना शुरू कर दिया था। अंग्रेज हुकूमत अपनी राजनीति व रणनीति के अनुरूप संतालों के आगमन को विशेष प्रोत्साहन और सहयोग देती थी। उन्हें जंगल साफ करने और जंगली पशुओं से छुटकारा दिलाने के लिए पड़ोसी जिलों से लाकर बसाया जाता था। पहाड़िया जनजाति ने अपने गांवों में संतालियों के आगमन का जरा भी विरोध नहीं किया। लेकिन बाद में अंग्रेजी हुकूमत की फूट डालो और राज करो की नीति ने संताल परगना के पूरे इतिहास को ही नया मोड़ दे दिया। अंग्रेज हुकूमत ने क्षेत्र के मूल निवासी पहाड़िया प्रजाति को लुटेरा समुदाय घोषित किया और जंगल काट कर खेत बनाने और जंगली पशुओं से छुटकारा पाने के लिए संतालों को उस क्षेत्र में बसने के लिए प्रोत्साहित किया। पहाड़िया और संतालों के बीच द्वेष और तनाव पैदा कर अंग्रेजों ने क्षेत्र में अपना राज पक्का किया। हालांकि 1885 में संताल विद्रोह हुआ, तो अंग्रेजी हुकूमत की पोल खुल गयी। अंग्रेजों के आगमन के साथ झारखंड क्षेत्र में सत्ता और शासन के साथ शोषण का नया और क्रूरतम रूप प्रगट होने लगा। बाहर आने वाले लोग यहां के व्यापार, शिक्षा सामाजिक शासन, प्रशासन, न्याय प्रणाली और धर्म-कर्म तक पर काबिज होने लगे। उनके आदिवासीकरण की प्रक्रिया भंग हुई और वे ‘दिक्कू’ के रूप में पहचाने जाने लगे। 1793 में अंग्रेजों ने परमानेंट सेटलमेंट का कानून लागू किया। इसके साथ ही ब्रिटिश शासन के शोषण-दमन का चक्र तेजी से चलने लगा और उसके खिलाफ आदिवासी संघर्ष का नया इतिहास बनने लगा। वैसे, उसके दस साल पहले ही आदिविद्रोही तिलका मांझी ने 1783 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ भीषण विद्रोह कर यह दिखा दिया कि शांत आदिवासी के अंदर आजादी के लिए मर मिटने का कैसा हौसला होता है?
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झारखंड की जनजातियों का अप्रतिम योगदान रहा है। 1857 के प्रथम संग्राम के करीब 26 साल पहले ही झारखंड की जनजातियों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया था। झारखंड की सांस्कृतिक पहचान का राजनीतिक अर्थ भी पहली बार 1831 के कोल विद्रोह से उजागर हुआ था। उसमें मुंडा, हो, उरांव, भुइयां आदि जनजातियां शामिल हुईं। इस विद्रोह के केंद्र थे रांची, सिंहभूम और पलामू। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ यह संभवत: पहला विराट आदिवासी आंदोलन था। इतिहासकार इस विद्रोह को झारखंड क्षेत्रा का विकराल अध्याय मानते हैं। हालांकि इसके पूर्व 1783 में तिलका मांझी का विद्रोह और 1795-1800 में चेरो आंदोलन पूरे झारखंड क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सुलगती-फैलती ‘जंगल की आग’ का संकेत दे चुके थे। तिलका मांझी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष की चेतना फैलाने वाले ‘आदिविद्रोही’ थे। उन्होंने 1772 में जमीन व फसल पर परम्परागत अधिकार के लिए संघर्ष छेड़ा। उनके नेतृत्व में संघर्ष का संदेश गांव-गांव में सखुआ का पत्ता घुमाकर किया जाता था। तिलका मांझी ने सुलतानगंज की पहाड़ियों से छापामार युद्ध का नेतृत्व किया था। तिलका के तीरों से अंग्रेज सेना का नायक अगस्टीन क्लीवलैंड घायल हुआ। 1785 में तिलका मांझी को भागलपुर में फांसी दी गयी। वह स्थान आज भागलपुर में तिलका मांझी चौक के नाम से जाना जाता है। कोल विद्रोह के पहले ही 1795-1800 तक तमाड़ विद्रोह, 1797 में विष्णु मानकी के नेतृत्व में बुंडू में मुंडा विद्रोह, 1798 में चुआड़ विद्रोह, 1798-99 में मानभूम में भूमिज विद्रोह और 1800 में पलामू में चेरो विद्रोह ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की अटूट शृंखला कायम कर दी थी। यह स्मरण रखना चाहिए कि छोटानागपुर का क्षेत्र 1765 ई. में अंग्रेजी राज में सम्मिलित हो चुका था लेकिन इस क्षेत्र पर कई-कई साल तक अंग्रेजों का पूर्ण आधिपत्य स्थापित नहीं हो सका। 1816-17 में छोटानागपुर के राजा की दंड-शक्ति पूरी तरह से छीन ली गयी। निरंतर जारी विद्रोहों की वजह से मजिस्ट्रेट और कलेक्टर के अधीन यहां प्रत्यक्ष शासन की स्थापना हुई। प्रत्यक्ष शासन के साथ शुरू हुई ‘रेगुलेशन’ की परिपाटी (बिहार में अंग्रेजी राज के विरुद्ध अशांति(1831-1859, संपादक: डा. कालीकिंकर दत्ता)। छोटानागपुर क्षेत्रमेंहुएकोलविद्रोहकेनायकथेसिंदरायऔरबिंदरायमानकी।यहविद्रोह11 दिसम्बर, 1831 को फूट पड़ा। 19 मार्च 1832 को कैप्टन विल्किंसन के नेतृत्व में सेना की टुकड़ियों ने इस विद्रोह को दबा दिया। संयुक्त कमिश्नर विल्किंसन और डेंट ने, जिनकी नियुक्ति उस विद्रोह को दबाने के लिए हुई थी, विद्रोह की वजहों को रेखांकित करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा -‘पिछले कुछ वर्षों के भीतर पूरे नागपुर भर के कोलों पर वहां के इलाकादारों, जमींदारों और ठेकेदारों ने 35 प्रतिशत लगान बढ़ा दिये हैं। परगने भर की सड़कें उन्हें (कोलों को) बिना किसी मजदूरी के बेगारी द्वारा बनानी पड़ी थीं। महाजन लोग, जो उन्हें रुपये या अनाज उधार दिया करते थे, 12 महीने के भीतर ही उनसे 70 प्रतिशत और कभी-कभी उससे भी ज्यादा वसूल कर लेते थे। उन्हें शराब पर लगाये गये कर, जिसकी दर तो चार आना प्रति घर के हिसाब से निश्चित थी लेकिन जिसकी वसूली आम तौर पर इससे कहीं अधिक की जाती थी और उसके अलावे सलामी के रूप में प्रति गांव एक रुपया और एक बकरी भी ली जाती थी, से सख्त नफरत थी। ….कोलों को अफीम की खेती नापसंद थी। …..हाल में वहां एक ऐसी डाक प्रणाली चलायी गयी थी, जिसका पूरा खर्च गांव के कोलों को वहन करना पड़ता था। …..कोलों के बीच यह भी शिकायत का विषय था कि जो लोग बाहर से आकर नागपुर में बसे हैं, उनमें से बहुतों ने, जिनका कोलों पर बेतरह कर्ज लद गया है, अपने कर्ज की वसूली के लिए बहुत सख्ती की है। बहुत से कोलों को उनके नाम ‘सेवक-पट्टा’ लिख देना पड़ा है। यानी उनके हाथ अपनी सेवा तब तक के लिए बेच देनी पड़ी है, जब तक कर्ज अदा नहीं हो जाय। इसका मतलब है अपने आप को ऐसे बंधन में डाल देना कि उनकी पूरी कमाई का पूरा हकदार महाजन बन जाय और वे जीवन भर के लिए महाजन के दास बन जायें।’ बंगालसरकारको1 मार्च, 1833 को लिखे विल्किंसन का पत्र, संयुक्त कमिश्नर डेंट की ओर से बंगाल सरकार को भेजी गयी 4 अगस्त, 1833 की रिपोर्ट और 15 मार्च, 1832 को भेजी गयी रामगढ़ के मजिस्ट्रेट नीभ की रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट होता है कि कोल विद्रोह में छोटानागपुर के कई जमींदार और राज परिवार शामिल थे। नागपुर के राजा और बसिया के कुंअर के बारे में अंग्रेज सरकार का ख्याल था – ‘कई कारणों से राजा हमलोगों के आधिपत्य से छुटकारा पाने की इच्छा कर सकता है।’ इसी तरह सिंहभूमि में वहां के राजा अचेत सिंह और उसके दीवान पर कोलों को विद्रोह के लिए उकसाने का अभियोग लगाया गया। मानभूमि में, जहां सबसे अंत में विद्रोह हुआ, भूमिज कोलों का नेतृत्व बड़ाभूमि के राजपरिवार के गंगानारायण सिंह कर रहे थे। उनके साथ उस इलाके के और भी कई कुअंर-जमींदार विद्रोह में शामिल थे। पलामू में चेरो और खरवारों ने अपने-अपने सरदारों के नेतृत्व में बगावत की। 1831 में कोल विद्रोह के फूटने की शुरुआती वजहों के बारे लिखते हुए विल्किंसन ने 12 पफरवरी, 1832 की अपनी रिपोर्ट में कहा – ‘रांची जिला में ईचागुटू परगने के सिंहराय मानकी के 12 गांवों को कुछ बाहरी लोगों के हाथ ठीका दे दिया गया था। उन लोगों ने मानकी को न केवल बेदखल किया, वरन उसकी दो जवान बहनों को बहका कर उनके साथ बलात्कार भी किया था। इसी तरह एक बाहरी ठेकेदार ने सिंहभूमि जिले के बंद गांव में एक मुंडा के साथ अत्याचार किया और उसकी पत्नी को भगा कर उसकी इज्जत बिगाड़ दी थी। अत्याचार से पीड़ित लोगों को जब इन्साफ करने वालों के यहां से इन्साफ नहीं मिला, तो उन्होंने सोनपुर, तमाड़ और बंदगांव परगनों के सभी कोलों को तमाड़ में लंका नामक स्थान पर एकत्रित होने का आह्नान किया। वहां उन्होंने फैसला किया कि वे अब उन पर हो रहे अत्याचारों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे विरोध में आग लगाने, लूटने और खून करने की कार्रवाई शुरू करेंगे।’ ……..1832 में जनवरी के मध्य तक मुंडारी और उरांव लोग पूरे उत्साह से विप्लव में शामिल हो चुके थे (हंटर: स्टैटिस्टकल एकाउंन्टस, लोहरदग्गा)। आंदोलन ने शीघ्र ही एक राष्ट्रीय संघर्ष का रूप धारण कर लिया, जिसका स्पष्ट उद्देश्य था – विदेशियों से छुटकारा पाना(जे. रीड: रांची सेटलमेंट रिपोर्ट, पेज 23)। कोल विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों को बड़े पैमाने पर सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। कलकत्ता, बनारस, संभलपुर,और नागपुर, सभी दिशाओं से अंग्रेजी पलटन भेजी गयी। कप्तान विल्किंसन छोटानागपुर पठार के उत्तरी छोर, पिथौरिया नामक स्थान पर 1832 में जनवरी के मध्य में पहुंचा। लेकिन उसका हमला फरवरी के मध्य में शुरू हुआ। पूरी सेना को तीन दलों में बांट कर पूरे प्रांत पर उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ते हुए हमला करने को कहा गया। भीषण संघर्ष हुआ। अंग्रेज सेना को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। पिथौरिया और रांची के बीच नगरी के विद्रोहियों ने तो आखिरी दम तक लड़ने की कसम खायी थी। वहां अंग्रेजों ने खास सेना भेजी। उसे स्पष्ट आदेश था कि वह हमला, कत्ल और बर्बादी करे। अंग्रेजों की उस सेना का तीन-तीन हजार विद्रोही कोल सैनिकों ने मुकाबला किया लेकिन अंग्रेज सेना की बर्बरता के सामने वे टिक नहीं सके। नगरी के बहादुर कोल विद्रोही एक-एक कर मारे गये। हंटर ने करीब 40 साल बाद ‘स्टैटिस्टकल एकाउंट्स ऑफ बंगाल’ नामक किताब लिखी। उसमें उसने लिखा – नगरी गांव के लोग आज भी ऐसे गीत गाते हैं, जो याद दिलाते हैं कि उनके पूर्वज 1832 में किस प्रकार वीरगति को प्राप्त हुए!’ नगरी पर कब्जा होते ही उत्तरी भाग के अधिसंख्य गांव अंग्रेजों के कब्जे में आ गये लेकिन पश्चिम के उरांव और दक्षिण-पूर्व के मुंडारी विद्रोही हथियार डालने को कतई तैयार नहीं थे। पलामू में खरवार लोगों का विद्रोह चरम पर था। यहां तक कि अंग्रेज घुड़सवार पलटन के एक जत्थे को, जो पलामू के रास्ते से छोटानागपुर में घुसने की कोशिश कर रहा था, चेतमा नामक पहाड़ी घाटी में विद्रोहियों के जबर्दस्त हमले का सामना करना पड़ा और हार कर भागना पड़ा। अंग्रेजों को लेस्लीगंज से भी हटना पड़ा और बनाथू नामक स्थान में छिपने को मजबूर होना पड़ा। अंग्रेज सेना के तीनों दलों को फिर से एक स्थान पर इकट्ठा कर हमला किया गया। तब जाकर विद्रोह दबा। विद्रोह के नायक बिंदराय मानकी ने, जो सिंहराय का भाई था, 19 मार्च, 1832 को आत्मसमर्पण किया। हालांकि कोल विद्रोह के शांत होते ही मानभूम जिले में भूमिज जनजातियों का विद्रोह शुरू हुआ। मानभूम (बड़ाभूमि, पातकुम आदि) और सिंहभूम(दालभूम) के कोलों ने बड़ाभूमि राजवंश के गंगनारायण सिंह के नेतृत्व में सशस्त्र आंदोलन शुरू किया। साल का अंत आते-आते विद्रोही नेता बिंदराय मानकी फिर से आंदोलन का नेतृत्व करने लगा, जिसेसरकारनेआत्मसमर्पणकेबादमाफकरनेकीरणनीतिअपनायीथी।1833 के अंत में अंग्रेज सेना को उस बगावत को दबाने में सफलता मिली। गंगनारायण सिंह युद्ध करते हुए हिंदुसाही नामक स्थान पर मारा गया। उसकी वीरता से आतंकित अंग्रेजों की जान में जान तब आयी, जब उसका कटा सर कमिश्नर के सामने पेश किया गया! बिंदराय मानकी को घेर कर पकड़ने में भी अंग्रेज सेना सपफल हुई। उसे हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। कोल विद्रोह दबा और तब छोटानागपुर क्षेत्र में अंग्रेजों का आधिपत्य हुआ। हालांकि उस विद्रोह का परिणाम यह हुआ कि 1833 में उस साल के 13वें अधिनियम के जरिये उस क्षेत्र से बंगाल सरकार के प्रचलित कानून हटा लिये गये। अंग्रेजों ने छोटानागपुर पर अपनी सत्ता की पकड़ मजबूत रखने के लिए दक्षिण पूर्व सीमा प्रांतीय एजेंसी नामक ननरेगुलेशन प्रांत का निर्माण किया। रांची को इसकी राजधानी बनाया गया। अंग्रेज प्रशासकों ने दालभूम को मिदनापुर से हटाकर मानभूम में मिला दिया। 1838 में जिला का मुख्यालय पुरुलिया को बनाया गया। 1837 में अंग्रेजों ने हो जनजाति को हराकर समझौता किया। कोल्हान क्षेत्र को दक्षिण पश्चिम प्रफंटियर एजेंसी में मिलाया गया। हो बहुल इलाके को कैप्टन थॉमस विल्किंसन ने आरक्षित जनजातीय क्षेत्र (कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट) का दर्जा दिया और प्रशासन के लिए परम्परागत मानकी-मुंडा पद्धति को वित्तीय व न्यायिक अधिकार प्रदान किये। उसे ही ‘विल्किंसन रूल’ कहा जाता है। इस रूल को आधार बना कर कोल्हान में आज भी स्वायत्तता के संघर्ष को जिंदा रखा गया है। हालांकि 1978-80 में उस संघर्ष का सूत्रपात करने वाले नेता के. सी. हेम्ब्रम पर आज भी राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चल रहा है। वह भूमिगत जिंदगी जी रहे हैं। (इस अधयाय के अंत में इसकी विस्तार से चर्चा की गयी है)। कोल विद्रोह के करीब 22 साल बाद 1855-56 में संताल जनजाति के नेतृत्व में संताल परगना की पूरी जनता उठी और उसने विद्रोह की आवाज बुलंद की। लार्ड कार्नवालिस द्वारा लादी गयी ‘स्थायी जमींदारी प्रथा’ के खिलाफ हुए उस संघर्ष को संताल विद्रोह कहा जाता है। उस विद्रोह की लपटें संताल परगना और भागलपुर से लेकर बंगाल की सीमा और छोटानागपुर के हजारीबाग जिले तक फैलीं। उस वक्त के अंग्रेज अधिकारियों के अनुसार ‘वीरभूम जिले में विद्रोह अत्यंत उग्र रूप धरण कर चुका था। वीरभूम के दक्षिण-पूर्व में ग्रैंड ट्रंक रोड पर स्थित तालडंगा से लेकर उत्तर-पूर्व में गंगा नदी के तट पर भागलपुर और राजमहल तक विद्रोह की भीषण आग फैली हुई थी। यहां तक कि दामोदर नदी और ग्रैंड ट्रंक सड़क से दक्षिण की ओर संतालों का बढ़ाव रोकने के लिए अंग्रेज गवर्नर जनरल की अंगरक्षक सेना और रामगढ़ घुड़सवार पलटन के साथ भारी फौज तैनात करनी पड़ी थी। उस फौज का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जब विद्रोह की आग बुझ रही थी, तब उस क्षेत्र में तीस हजार से अधिक विद्रोही हथियारबंद थे (बंगाल अंडर लेफ्रिटनेंट गवर्नर्स: सी. ई. बकलैंड)। विद्रोहियों को खुले क्षेत्रों से निकालने में अंग्रेजों की जो फौज लगी, उसमें करीब 14-15 हजार सैनिक थे। संताल लोग वर्तमान छोटानागपुर डिविजन एवं बांकुड़ा, पुरलिया और मेदिनीपुर जिलों की ओर से आकर 18वीं सदी के उत्तरार्ध( और 19वीं सदी के पूर्वार्ध में बिहार के पूर्वी क्षेत्र में बसे थे, जिसे आज झारखंड राज्य का संताल परगना क्षेत्र (पांच जिले – गोड्डा, साहेबगंज, पाकुड़, दुमका और देवघर)। कहा जाता है। 1832-33 में वह दामिन-ई-कोह शासन क्षेत्र के नाम से विख्यात हुआ था। 1837 से यह क्षेत्र शासन संबंधी कार्यों के दीवानी मामलों में जेम्स पौटेंट नामक एक सुपरिन्टेंडेंट के मातहत था और पफौजदारी मामलों में भागलपुर के मजिस्ट्रेट के अधीन था। पूरे क्षेत्र के लिए केवल एक मजिस्ट्रेट देवघर में रहता था। न्याय पाने के लिए संतालों को अक्सर बहुत दूर अवस्थित भागलपुर, वीरभूम या ब्रह्मपुर की कचहरियों में जाना पड़ता था। संताल विद्रोह का मुख्य कारण था – पछाहीं महाजनों और साहूकारों के शोषण और अत्याचारों के खिलाफ संतालों का आर्थिक असंतोष। ये महाजन और साहूकार दामिन-ई-कोह में अपने व्यापार के लिए बहुत बड़ी संख्या में बस गये थे। उन्होंने संतालों का शोषण कर बहुत थोड़े दिनों में बहुत सम्पत्ति जमा कर ली थी। वे बरसात के कुछ महीनों में संतालों को कुछ रुपये, कुछ चावल या कुछ अन्य सामान उधार देते थे और बड़ी चालाकी से कुछ ही दिनों में जीवन भर के लिए उनके भाग्य-विधता बन जाते थे (द संताल इन्सरेक्शन: डा. के. के. दत्ता, पाकुड़ के सरकारी अभिलेख)। कर्ज चुकाने में संतालों को अपनी जमीन से हाथ धेना पड़ता था और कई को कर्ज के बदले गुलामी स्वीकार करनी पड़ती थी – उन्हें अपने आप को साहूकारों का बंधुआ बनना पड़ता था। गुलामी की उस प्रथा को कानूनी अदालतों में स्वीकृति दी जाती थी! उस दौर में संतालों के असंतोष की चिनगारी को विद्रोह की ज्वाला में बदला संताल परगना में भगनाडीह गांव के सिद्धू और उसके तीन भाई कान्हू, चांद और भैरव ने। 13 जून से 17 अगस्त, 1855 तक चंद दिनों में ही उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व और पराक्रम से जनता में मुक्ति का ऐसा जज्बा पैदा किया कि अंग्रेजों को संतालों के खिलाफ फौजी कानून की घोषणा करनी पड़ी थी। विद्रोह की भीषण आग बुझाने के लिए लागू सैनिक कानून को 3 जनवरी, 1956 में वापस लिया गया! बागी सरदारों की गिरफ्तारी के लिए बड़े-बड़े इनामों की घोषणा की गयी। मुख्य सरदार के लिए दस हजार, दीवानों में से प्रत्येक के लिए पांच हजार और परगना-सरदारों के लिए एक-एक हजार! यहां तक कि विद्रोह को कुचलने के लिए दानापुर से अतिरिक्त सेना बुलायी गयी और मेजर जनरल लायड ने सैन्य संचालन का पूरा भार अपने हाथ में लिया। हजारीबाग में उस विप्लव का नेतृत्व लुबिया मांझी, बैस मांझी और अर्जुन मांझी ने संभाला था। गोला, चास, कुजू, बगोदर आदि इलाकों में जनता ने खुल कर विद्रोहियों का साथ दिया। विद्रोहियों ने हजारीबाग जेल तक में आग लगा दी थी। विद्रोह में संताल और अन्य जातियों के हजारों लोगों ने अपनी कुर्बानी दी। उस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेज सेना को एड़ी-चोटी का पसीना एक करना पड़ा। संताल विद्रोह के बाद ही संताल बहुल क्षेत्रा को भागलपुर और वीरभूम से अलग किया गया और उसे ‘संताल परगना’ नाम से वैधानिक जिला बनाया गया। संताल विद्रोह की आग शांत हुई भी नहीं कि भारत की आजादी का पहला महासंग्राम 12 जून, 1857 को झारखंड क्षेत्र के रोहिणी नामक गांव से शुरू हुआ। उस गांव में मेजर मेकडोनल्ड के कमान में थलसेना की 32वीं रेजिमेंट थी। उस कमान के तीन सैनिकों ने विद्रोह कर लेपिफ्टनेंट नार्मन लेस्ली की हत्या कर दी। उस विद्रोह के परिणाम स्वरूप 16 जून को मेजर ने तीनों सैनिकों को फांसी पर लटका दिया। साथ ही रेजिमेंट को रोहिणाी से हटाकर भागलपुर ले जाया गया। इधार छोटानागपुर में उस महासंग्राम में बलिदानियों की कुर्बानी का यह आलम था कि दर्जनों विद्रोही नायकों को फांसी पर लटकाने के बावजूद अंग्रेज शासकों के पांव इस क्षेत्र से उखड़ गये। करीब एक साल तक छोटानागपुर क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन ठप रहा। उस विद्रोह में रांची के ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय, रामगढ़ बटालियन के जमादार माधे सिंह, डोरंडा बटालियन के जयमंगल पांडेय, पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह, विश्रामपुर के चेरो सरदार भवानी राय, टिकैत उमराव सिंह, पलामू के नीलाम्बर एवं पीताम्बर और शेख भिखारी, ब्रजभूषण सिंह आदि कई नेताओं ने बलिदानी भूमिका निभाई। 1858 में अंग्रेजी सेना ने उस विद्रोह को दबाया। 16 अप्रैल, 1858 को कर्नल डाल्टन ने रांची जिला स्कूल के पास ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को एक नीम के पेड़ से फांसी पर लटका दिया। 21 अप्रैल, 1858 को पांडेय गणपत राय को पफांसी दी गयी। इसी तरह टिकैत उमराव सिंह सहित दर्जनों नायक फांसी पर चढ़ गये। 1855-56 के संताल विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने झारखंड क्षेत्र में आतंक के साथ-साथ प्रलोभन का साम्राज्य विकसित किया। इसकी वजह से 1857 के महासंग्राम के बाद पूरे झारखंड क्षेत्र में विद्रोह के स्वर कई सालों तक मंद रहे। स्थायी बंदोबस्ती कानून के जरिये नव जमींदारों को संरक्षण और धर्म परिवर्तन – इन दो हथियारों से अंग्रेज हुकूमत ने झारखंड क्षेत्र में अपने शासन को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास किया। जैसे-जैसे यह प्रयास बढ़ा, असंतोष भी बढ़ने लगा। लेकिन असंतोष को विस्पफोट में ढलने में करीब 26 साल लगे। जमींदारों को संरक्षण और धर्मातंतरण के खिलाफ 1881 में अंग्रेजों को सरदार विद्रोह के रूप में बड़ी चुनौती मिली। परम्परागत स्थानीय स्वशासन की प्रणाली के तहत चुने जाने वाले सरदारों ने मुंडा-उरांवों का एक राजा और राज्य स्थापित करने की घोषणा के साथ विद्रोह का बिगुल फूंका। स्वाधीन राज्य के समर्थन में विद्रोह की आग फैली। आदिवासियों ने जमींदारों को कर देना बंद कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने सैनिक कार्रवाई के जरिये सरदार विद्रोह को दबाया। 19वीं शताब्दी का अंत आते-आते अंग्रेजों को यह एहसास होने लगा था कि झारखंड का आदिवासी जनजीवन संस्कृति की जिस अवधारणा से बंध है, वह सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक प्रणालियों के रूप में विकसित है। आदिवासियों की संस्कृति उनके स्वशासन की सामाजिक-राजनीतिक प्रणालियों में रूपबद्ध है। उन प्रणालियों को तोड़े बिना संस्कृति का वह ‘जीवन रस’ खत्म होने वाला नहीं, जो आदिवासियों को समाज के लिए कुर्बान होने, सामूहिकता और संघर्ष के लिए फिर- फिर उठ खड़े होने की ताकत देता है। यहां यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि 1891 में रांची में आर्य समाज की स्थापना हुई, जिसने आदिवासियों के शुद्धिकरण का अभियान चलाया। 1895 में बिरसा आंदोलन शुरू हुआ तो ब्रिटिश हुकूमत को मालूम हो गया कि झारखंड में संस्कृति, धर्म और राजनीति के सूत्र एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और उन सूत्रों से आदिवासी समाज में सामूहिक स्वशासन की लोकतांत्रिक प्रणालियां सदियों पहले विकसित हो चुकी हैं। उन प्रणालियों पर चोट किये बिना लोकतंत्र की आड़ में साम्राज्यवाद के विस्तार का अंग्रेज हुकूमत का सपना कभी साकार नहीं होगा। बिरसा आंदोलन पूर्ण राजनीतिक स्वाधीनता के आंदोलन के रूप में प्रगट हुआ। अंग्रेज हुकूमत बिरसा आंदोलन को सरदार विद्रोह की कड़ी के रूप में देखती थी। लेकिन बिरसा के नेतृत्व में वह सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए पूर्ण स्वायत्तता और राजनीतिक स्वतंत्रता का आंदोलन बन गया था। बिरसा मुंडा ने ‘अंग्रेजों अपनो देश वापस जाओ’ का नारा देकर महान मुंडा उलगुलान का नेतृत्व किया। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता को अस्वीकार करते हुए सरकार को लगान नहीं देने का फैसला किया। सामाजिक विषमता, आर्थिक शोषण और विदेशी सत्ता के खिलाफ बिरसा मुंडा ने ऐसे विराट आंदोलन का सूत्रपात किया कि पूरा झारखंड क्षेत्र उनके नेतृत्व में मुक्ति के लिए जैसे अंगड़ाई लेकर अचानक उठ खड़ा हुआ। आदिवासी समुदाय आदर्श समाज की कल्पना से प्रेरित होकर उनके लिए हर तरह की कुर्बानी देने को तैयार होने लगा। उनकी लोकप्रियता से ब्रिटिश हुकूमत पहले चिंतित हुई और फिर तो कांपने लगी। 24 अगस्त, 1895 को बिरसा को अचानक गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला कर उन्हें कैद की सजा दी गयी। अंग्रेज हुकूमत ने महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती के उपलक्ष्य में बिरसा को 1898 में मुक्त किया। उनके बाहर निकलते ही आंदोलन में और तेजी आ गयी। उनके नेतृत्व में हजारों क्रांतिकारी डोम्बारी पहाड़ी पर 8 जनवरी, 1900 को अंग्रेज हुकूमत की गोलियों के शिकार हुए। 3 पफरवरी, 1900 को बिरसा मुंडा पकड़ लिये गये। उन्हें रांची जेल लाया गया। 9 जून, 1900 को उनकी जेल में मृत्यु हुई। 1912 में बंगाल प्रोविंस से अलग कर बिहार राज्य की स्थापना हुई। उसके बाद झारखंड क्षेत्र में राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की रफ्तार फिर तेज हो गयी। उसमें ताना भगत आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वह आंदोलन 1913-14 में शुरू हुआ। आंदोलन गुमला जिला के विशुनपुर थाना, चरपी नावा टोली के जतरा उरांव के नेतृत्व में शुरू हुआ। वह पिछले जनजातीय विद्रोहों से कुछ अलग था। वह धार्मिक सुधार आंदोलन के रूप में पनपा और विकसित हुआ लेकिन जल्द ही उसका राजनीतिक स्वरूप सामने आ गया। उसके तीन मुद्दे स्पष्ट थे – 1 स्वशासन का अधिकार 2 सारी जमीन ईश्वर की है, इसलिए उस पर लगान का विरोध 3 आदर्श समाज की स्थापना के लिए मनुष्य-मनुष्य के बीच गैरबराबरी का खात्मा। धार्मिक पुनरुत्थान और जातीय परिष्कार के दौर से गुजरते हुए आंदोलन जब शोषण मुक्ति के संकल्प के रूप में व्यक्त हो रहा था, तो ठीक उसी वक्त देश में राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर सत्याग्रही गांधी के हाथ में आ चुकी थी। ताना भगत आंदोलन में शामिल नेता और कार्यकर्त्ता गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित हुए। स्थानीय माना जाने वाला आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन का महत्वपूर्ण अंग बन गया। इस बीच झारखंड क्षेत्र कांग्रेस की राष्ट्रीय गतिविधियों का एक जरूरी केंद्र बना। 1915 में मौलाना अबुल कलाम आजाद को रांची के अपर बाजार स्थित वर्तमान आजाद उच्च विद्यालय में महीनों नजरबंद रखा गया। जून, 1917 में चम्पारण सत्याग्रह के सिलसिले में महात्मा गांधी जब बिहार के गवर्नर से मिलने रांची आये तो यहां उनका भव्य स्वागत किया गया। रांची में रौलट एक्ट और जलियांवालाबाग हत्याकांड के खिलाफ गुलाब तिवारी के नेतृत्व में लगातार आंदोलन चला। 1920 में रांची जिला कांग्रेस कमिटी की स्थापना हुई। 10 अक्टूबर, 1920 को दीनबंधु एन्ड्रूज की अधयक्षता में डालटनगंज में बिहार छात्र सम्मेलन हुआ। 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेशन में ताना भगतों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। वे रामगढ़, नागपुर और लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनों में भी शामिल हुए। ताना भगतों के स्थानीय आंदोलन ने उनके पारम्परिक जीवन में आमूल परिवर्त्तन कर दिया था। आंदोलन के क्रम में ताना भगतों ने रहन-सहन, खान-पान और निजी व सामाजिक रीति-रिवाजों में परिवर्त्तन कर एक नया पंथ ही कायम कर लिया था। उनके लिए शराब और मांस का सेवन वर्जित था। रंगीन कपड़े और गहने धारण करना वर्जित था। शरीर को गोदना से सजाना मना था। शिकार खेलना, अखाड़ा में नाचना और जतरा में भाग लेने पर प्रतिबंध था। आजादी के संघर्ष के लिए भी सादा जीवन और उच्च विचार की राह की तलाश में ताना भगत जब गांधी विचारों के सम्पर्क में आये तो उनको महसूस हुआ कि उनके और गांधी के विचारों में साम्य है। सो ताना भगतों ने अपने जिस आंदोलन को आर्थिक और धार्मिक आधारों पर शुरू किया, उसे देश की आजादी के राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा बनाने के क्रम में चरखा चलाना और खादी के सफेद कपड़े पहनना सहजता से स्वीकार किया। ऐतिहासिक घटनाओं की उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार 1925 में महात्मा गांधी रांची आये तो उन्होंने ताना भगतों के क्षेत्रा का भी दौरा किया था। ताना भगतों ने महात्मा गांधी को अपना नेता माना और उनके नेतृत्व में आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का संकल्प किया। ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी जमीनें छीन लीं। उन पर हर तरह के जुल्म ढाये लेकिन ताना भगत समाज अपने लक्ष्य और दिशा से विचलित नहीं हुआ। 1920 से ही झारखंड क्षेत्र में आजादी के आंदोलन में संघर्ष और रचना के नये-नये आयाम विकसित होने लगे। यहां तक कि कई इलाकों में कांग्रेस के नेतृत्व में ‘वन सत्याग्रह’ भी चलाये गये। आदिवासी समाज को जंगल पर पुन: वैसा अधिकार प्राप्त हो, जैसा कि अंग्रेजों के आने के पहले था, यही उन सत्याग्रहों का मुख्य उद्देश्य था। 1930 में ये सत्याग्रह खरवार आंदोलन के नाम से चर्चित हुए। 1928-29 में छोटानागपुर उन्नति समाज का गठन हुआ, तो झारखंड क्षेत्र में ‘आजादी’ के वास्तविक अर्थ को उद्धाटित करने वाले राजनीतिक चिंतन की नयी प्रक्रिया शुरू हुई, जो ठीक आजादी के बाद झारखंड अलग राज्य की अवधरणा के रूप में स्पष्ट रूप से सामने आयी। छोटानागपुर उन्नति समाज ही आगे चलकर आदिवासी महासभा बना और देश आजाद होते ही झारखंड क्षेत्र में झारखंड पार्टी का उदय हुआ, जहां से झारखंड के इतिहास की नयी यात्रा शुरू हुई। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ शुरू हुए झारखंड आंदोलन के झारखंड अलग राज्य आंदोलन में तब्दील होने तक के इतिहास को इस कालक्रम में बांट कर आसानी से समझा जा सकता है-
· 1772-1783 तिलका मांझी आंदोलन। · 1795-1800 चेरो आंदोलन। · 1819-1820 तमाड़ विद्रोह। · 1832-1833 कोल विद्रोह। · 1834 विल्किंसन कानून लागू। · 1834 भूमिज विद्रोह। · 1855-1856 संताल विद्रोह। · 1857 संतालपरगना टेनेंसी कानून लागू। · 1857 सिपाही विद्रोह। · 1859 बिक्री कर कानून लागू। · 1860-1885 सरदार आंदोलन। · 1874 झारखंड अधिसूचित क्षेत्र की घोषणा। · 1878 भारतीय वन अधिनियम पारित। · 1895-1900 बिरसा आंदोलन। · 1908 छोटानागपुर टेनेंसी कानून लागू। · 1912 बंगाल से अलग कर बिहार (उड़ीसा सहित) राज्य का गठन। · 1912 ताना भगत आंदोलन। · 1920 छोटानागपुर उन्नति समाज। · 1938 आदिवासी महासभा। · 1950 झारखंड पार्टी। बहरहाल, ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1771 से लेकर 1947 तक जो विद्रोह और आंदोलन हुए, उनके दो सिरे थे। एक सिरा जंगल-जमीन जैसे जीवन यापन के मुद्दों की वजह से स्थानीय और प्रजाति विशेष के नेतृत्व से जुड़ा था और दूसरा सिरा सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों की वजह से आजादी के सार्वदेशिक आंदोलन का अनिवार्य हिस्सा बना। इसीलिए किसी भी आंदोलन में विशेष प्रजाति का बाहुल्य होने के बावजूद अन्य तमाम समुदायों ने उसमें भाग लिया और स्थानीय नेतृत्व होते हुए भी हर आंदोलन ने अपनी सार्वदेशिक छवि पेश करने की कोशिश की। झारखंड क्षेत्र में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 150 साल में हुए विभिन्न आंदोलनों एवं विद्रोहों की एक-दूसरे से जुड़ी कड़ियों को देखे-समझे बिना भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की व्याख्या संभव नहीं है। इतिहास के इस पूरे परिदृश्य के स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय संदर्भ को और उनके बीच के सम्बंधों को गहराई से समझने के लिए तीन आंदोलनों का विशेष उल्लेख जरूरी है। एक संताल हूल, दूसरा बिरसा उलगुलान और तीसरा ताना भगत आंदोलन।
1955 का महान हूल 30 जून 1855 को संताल परगना में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। राजमहल क्षेत्र (अभी का साहबगंज जिला) में भगनाडीह (यह बघनाडीह तो नहीं!) गांव के सिद्धू ने नेतृत्व संभाला। दस हजार संतालों के बीच सिद्धू ने अंग्रेजों के खिलाफ हूल (क्रांति) की घोषणा की। सिद्धू के साथ उसके तीनों भाई कान्हू, चांद और भैरव भी थे। उसे ‘संताल हुल’ या संताल विद्रोह कहा जाता है। उस विद्रोह की लपटें हजारीबाग में भी फैली थीं। वहां उसका नेतृत्व लुबिया मांझी, बैस मांझी और अर्जुन मांझी ने संभाला था। यहां इस तथ्य को रेखांकित करना जरूरी है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1857 का सिपाही विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का प्रथम संघर्ष माना जाता है। संताल विद्रोह उससे दो साल पहले 55 में हुआ। उसमें हजारों संतालों ने अपने प्राणों की आहुति दी। उसे झारखंड की प्रथम आदिवासी जनक्रांति माना जाता है। सिद्धू ने संतालों के मुख्य देवता ‘मरांगबुरू’ और मुख्य देवी ‘जोहेरा एरा’ के पास माथा टेक कर अपने तीनों भाइयों को पूरे संताल परगना में सम्पर्क के लिए भेजा। संतालों को भगनाडीह (बघनाडीह!) गांव में एकत्रित होने का संदेश लेकर तीनों भाई गये। साल वृक्ष की टहनी घुमा कर यह संदेश दूर-दूर तक ले जाया गया। 30 जून, 1855 को दस हजार संताल हरबो-हथियार के साथ बघनाडीह गांव में एकत्र हुए। सभा में संताल राज्य की स्थापना की घोषणा की गयी। सिद्धू को राजा घोषित किया गया। कान्हू को सिद्धू का सलाहकार बना कर उसे भी राजा की उपाधि दी गयी। चांद को प्रशासक और भैरव को सेनापति बनाया गया। विद्रोह की घोषणाा के साथ नारापफूटा- ‘जुमीदार, महाजोन, पुलिस आर राजरेन आमलो की गुजुकमा।’ – जमींदार,महाजन, पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का नाश हो। सबने मिलकर संकल्प किया- अब से वे सरकारी आदेश नहीं मानेंगे। अंग्रेज सरकार को लगान देना बंद कर देंगे। जो सरकार का साथ देगा, वह अगर संताल भी होगा तो उसे कौम का दुश्मन माना जायेगा। आग के लिए छोटी-सी चिनगारी काफी होती है। अंग्रेज सरकार ने जमीन पर मालगुजारी वसूली कानून लादा था और दिनोदिन उसकी रकम बढ़ायी जाने लगी। यह संतालों के आक्रोश का बुनियादी कारण बना। संताल परगना में संतालों ने जंगल साफ कर खेत बनाये थे। अंग्रेज हुकूमत के रिकार्ड के अनुसार संतालों से 1836-37 में जहां मालगुजारी के रूप में 2617 रु. वसूल किया जाता था, वहीं 1854-55 में उनसे 58033 रु. वसूल किया जाने लगा था। 1851 के दस्तावेजों के अनुसार संताल परगना में उस वक्त तक संतालों के 1473 गांव बस चुके थे। मालगुजारी वसूल करने वाले तहसीलदार मालगुजारी के साथ-साथ संतालों से अवैध तरीके से अतिरिक्त धन वसूल करते थे। तहसीलदारों की लूट ने संतालों के आक्रोश की आग में घी का काम किया। अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था विद्रोह का दूसरा सबसे बड़ा कारण थी। पुलिस थाने सुरक्षा की बजाय संतालों पर अत्याचार और उनका दमन करने वाले अड्डे बन गये थे। थानेदारों से न्याय नहीं मिलता था। न्याय की फरियाद के लिए आम लोगों को भागलपुर, वीरभूम या फिर ब्रह्मपुर जाना पड़ता था। संतालपरगना से दूर वहां तक पहुंचना कठिन था। उपर से निरंकुश नीलहे गोरों का शोषण और अत्याचार। शुरू में नीलहे गोरों ने संतालों को नील की खेती के लिए प्रोत्साहित किया। इससे संतालों को कुछ लाभ भी हुआ लेकिन धीरे-धीरे नीलहे गोरे साहबों की बड़ी-बड़ी कोठियां आबाद होने लगीं और संतालों की झोपड़ियां उजड़ने लगीं। दुमका के कोरया एवं आसनबनी, साहबगंज, राजमहलऔरदर्जनोंइलाकोंमेंनीलहोंकीकोठियांखड़ीहोगयीं।25 जुलाई, 1855 को संताली बोली और कैथी लिपि में संतालों ने नीलहों के खिलाफ एक घोषणा पत्र तैयार किया। यह संतालों के विद्रोह के जनांदोलन में बदलने का प्रमाण था। उस दौरान राजमहल के पास रेल लाईन बिछायी जा रही थी। ठीकेदार अंग्रेज था। उसने तीन मजदूर संताली महिलाओं का अपहरण किया। संतालों का आक्रोश फूट पड़ा। उन्होंने अंग्रेजों पर हमला किया। तीन अंग्रेजों की हत्या कर तीनों संताली महिलाओं को छुड़ा लिया। वैसे, इसके पूर्व ही संतालों को एकजुट व संगठित करने की प्रक्रिया तेज हो चुकी थी। 1854 में संतालपरगना के गांव लछिमपुर के खेतौरी राजबीर सिंह ने संथालियों का संगठन बनाने का काम शुरू कर दिया था। उस दौरान रंगा ठाकुर, बीर सिंह मांझी, कोलाह परमानिक, डोमा मांझी जैसे संताल नेता पूरे झारखंड क्षेत्र में अलख जगा रहे थे। 7 जुलाई, 1855 को सिद्धू ने अपने अपमान का बदला लेते हुए जंगीपुरा के दारोगा महेशलाल की हत्या कर दी। इसके साथ ही पूरे संतालपरगना में संताली आबादी भूखे शेर की तरह जगी। विद्रोह जंगल की आग की तरह फैल गया। चारों ओर मारकाट मच गयी। कान्हू ने पंचकटिया में संतालों का विरोध करने वाले नायब सजावल खां की हत्या कर दी। गोड्डा के नायब प्रताप नारायण का सोनारचक में वध किया गया। संतालपरगना में डाकघर जला दिये गये। तार की लाईनें काट दी गयीं। मूल घटना यह थी कि दामिन-इ-कोह के अधीक्षक सदरलैंड का तबादला हो गया था। उसके स्थान पर कम्पनी ने पोटन को भेजा था। उसके पहले सदरलैंड ने अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की रणनीति का अनुसरण करते हुए संतालपरगना में पहाड़िया और संताल जनजाति के बीच घृणा व द्वेष के बीज बो दिये थे। पोटन फसल काटने लगा। इसके लिए उसने क्षेत्र के महाजनों का इस्तेमाल शुरू किया, जो कम्पनी शासन के समर्थक थे और उसकी लूट में साझीदार थे। महाजनों का व्यवसाय तो संतालों के शोषण के आधार पर ही चलता था। उनके पास सिपाहियों की अपनी-अपनी टुकड़ी हुआ करती थी। जंगीपुर का दारोगा महेशलाल दत्ता पोटन का समर्थक था। उसने पोटन के इशारे पर लिट्टठ्ठीपाड़ा के विजय मांझी को बेवजह गिरफ्तार कर भागलपुर जेल भेज दिया था। जेल में उसकी मृत्यु हो गयी। उस घटना से संताली भड़के हुए थे। जब महेशलाल दत्ता हड़मा मांझी, चम्पिया मांझी, गरभू मांझी और लखन मांझी को भी पकड़कर भागलपुर ले जाने लगा तो संतालियों के सब्र का बांध टूट गया। सफर में रात को महेशलाल बड़हैत गांव के एक महाजन के घर ठहरा। इसकी सूचना पेड़रकोल के परगनैत को मिली। उसने अपने सहयोगियों के मार्फत सिद्धू को यह खबर दी। सिद्धू बड़हैत पहुंचा। उसने दारोगा का विरोध किया। गिरफ्तार लोगों को छोड़ने को कहा। महेशलाल तो सत्ता के मद में चूर था। उसने उन्हें छोड़ने से इनकार किया ही, सिद्धू का अपमान भी किया। पिफर क्या था! सिद्धू ने उसकी हत्या कर दी और संताल विद्रोह का बिगुल बजा दिया। विद्रोह की तैयारी तो पहले से की जा चुकी थी। जनता को अपने नायक के इशारे का इंतजार था। रातोरात संताल परगना में महेशलाल की हत्या की खबर फैल गयी। सिद्धू ने हत्या की – यह संतालियों के नायक का आदेश बन गया। जगह-जगह सरकारी कर्मचारियों की हत्या शुरू हो गयी। कम्पनी की सेना संताल परगना पहुंचने लगी। 8 जुलाई, 1855 को भागलपुर के कमिश्नर ब्राउन ने मेजर वेरो को राजमहल भेजा। दानापुर, वीरभूम, सिंहभूम, मुंगेर, पूर्णियां से फौजी टुकड़ियां पहुंचने लगीं। ब्रह्मपुर में चार सौ जवानों की फौज की टुकड़ी तैनात कर दी गयी। सिद्धू के नायकत्व में संताली सेना भी तैयार थी। उसकी सेना के करीब 20 हजार बहादुर संतालियों ने अंबर परगना पर हमला किया। वहां के राजा को भगा कर उसके राजभवन पर कब्जा कर लिया। 12 जुलाई को राजभवन सिद्धू के हाथ में आ गया। संतालों की एक टुकड़ी उन क्षेत्रों की ओर बढ़ी, जहां नीलहे गोरों की कोठियां थीं। संतालों ने कई नीलहे गोरों को मार डाला। कदमसर की कोठी पर कब्जा भी कर लिया। प्यालापुर की कोठियों पर कब्जा के लिए बढ़ते वक्त मेजर वेरो की सेना से टक्कर हुई। उस मुकाबले में साजरेंट व्रोडोन मारा गया। अंग्रेज फौज के पांव उखड़ गये। वह भाग खड़ी हुई। नीलहों की कोठियां लूट ली गयीं। संताली फौज पाकुड़ की ओर बढ़ी। राजमहल, कहलगांव (भागलपुर), रानीगंज, वीरभूम सहित कई इलाकों पर संताली फौजों का कब्जा हुआ। रघुनाथपुर और संग्रामपुर में भी अंग्रेज सेना को मुंह की खानी पड़ी लेकिन महेशपुर में संताली विद्रोहियों की टुकड़ी पराजित हो गयी। तीर-कमान और भाला-बर्छा जैसे हथियारों से लैस संताली सेना को पाकुड़ में बंदूकों से लैस अंग्रेज सेना के मुकाबले जबर्दस्त हार का सामना करना पड़ा। पाकुड़ में कम्पनी सरकार ने अंग्रेजों की सुरक्षा के लिए ‘मारटेल टावर’ बनाया था। वह टावर 30 फीट उफंचा था। उसका घेरा 20 फीट था। अंदर से गोली चलाने के लिए उसमें छेद बनाये हुए थे। भागती अंग्रेज सेना ने उसी टावर में पनाह ली थी। उसने टावर में बने छेदों से संताली सेना पर गोलियां चलायीं। आज भी वह टावर संताल विद्रोह की व्यापकता और संताल आबादी की बहादुरी की कहानी कहता है। अंग्रेज हुक्मरानों के उस वक्त के दस्तावेज बताते हैं कि भगनाडीह के निवासी चुन्नू मांझी के चार बेटों सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव ने संताल विद्रोह के लिए कैसे पूरी संताल परगना की आबादी को एक सूत्र में बांध था। भागलपुर के कमिश्नर ने 28 जुलाई, 1855 के अपने पत्र में लिखा कि संताल विद्रोह में लोहार, चमार, ग्वाला, तेली, डोम आदि समुदायों ने सिद्धू को सक्रिय सहयोग दिया था। मोमिन मुसलमान भी संताल सेना में बड़ी संख्या में शामिल थे। बारिश का मौसम होने की वजह से सिद्धू और उसके भाइयों ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति बनायी थी। महेशपुर के युद्ध में अनेक संताल मारे गये। हार के बाद अनेक संताल नेता गिरफ्रतार कर लिये गये। इससे सिद्धू को बहुत कड़ा धक्का लगा। भागलपुर के पास युद्ध में चांद और भैरव गोली के शिकार हुए। जामताड़ा के उत्तर पूर्व में उसरबंदा के पास कान्हू गिरफ्तार हुआ। उपलब्ध शोध्-सूचनाओं के अनुसार फरवरी 1856 के तीसरे सप्ताह कान्हू वीरभूम जिले में पुलिस के हाथों मारा गया। 24 जुलाई, 1855 को बड़हैत में अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण सिद्धू भी पकड़ा गया। अंग्रेज प्रशासकों ने आनन-फानन में सिद्धू-कान्हू को बड़हैत में ही खुलेआम फांसी पर चढ़ा दिया। इसके बावजूद विद्रोह की आग नहीं बुझी। 15 अगस्त को कम्पनी सरकार ने एक फरमान जारी किया कि अगर संताल दस दिन के अंदर आत्म समर्पण कर दें तो जांच के बाद नेताओं को छोड़कर आम लोगों को क्षमा प्रदान की जायेगी। उस घोषणा का विद्रोहियों पर कोई असर नहीं हुआ। इसके विपरीत यह समझ कर कि अंग्रेज फौज कमजोर हो चुकी है और इसीलिए इस तरह के फरमान जारी कर रही है, विद्रोहियों ने अपनी कार्रवाइयां और तेज कर दीं। कम्पनी सरकार ने 14 नवम्बर, 1855 को पूरे जिले में ‘मार्शल लॉ’ लागू कर दिया। पूरे जिले में करीब 25 हजार की फौज तैनात रखी गयी। कुशल नेतृत्व के अभाव में संताल सेना बिखर गयी। विद्रोह सफल नहीं हुआ। उस विद्रोह में करीब दस हजार लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। विद्रोह के बाद सजा पाने वालों की कुल संख्या 251 थी। वे 54 गांवों के निवासी थे। उनमें 191 संताल, 34 नापित, 5 डोम, 6 घांघर, 7 कोल, 6 भुइयां और एक रजवार था।
बिरसा का उलगुलान बिरसा आंदोलन के मूल में कई कारक थे। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारक। वह आंदोलन भूमि से लेकर धर्म सम्बंधी तमाम समस्याओं के खिलाफ जनसंघर्ष था और साथ ही उन समस्याओं के राजनीतिक समाधन का प्रयास भी। वह आदिवासी और खासकर मुंडा समाज की आंतरिक बुराइयों और कमजोरियों को दूर करने का सामूहिक अभिक्रम भी था। बिरसा ने मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का जो प्रयास किया, वह अंग्रेज हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बनी। बिरसा के नेतृत्व में आदिवासी समाज ने अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दी। इस क्रम में बिरसा ने मुंडा जनजाति और पूरे आदिवासी समाज की उन सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान की दिशा में पहल की, जो आदिवासी संस्कृति पर हिंदू, मुसलमान और ईसाई पंथ के बढ़ते ‘दबाव’ की वजह से पैदा हुई और हो रही थीं। बिरसा आंदोलन का मर्म, उसकी विशालता और विशिष्टता को समझने के लिए झारखंड क्षेत्र की उन वास्तविकताओं को जानना जरूरी होगा, जो अंग्रेजों के आगमन के पूर्व समस्या थीं लेकिन बाद में संकट बन गयीं। 1789 से 1885 तक हुए अन्य आंदोलनों के कारणों के विश्लेषण से बिरसा आंदोलन की पृष्ठभूमि स्पष्ट रूप से पहचानी जा सकती है। अंग्रेजी शासन के पूर्व ही झारखंड क्षेत्र में सामंती व्यवस्था जड़ जमाने लगी थी। उसके कारण आदिवासियों की परम्परागत भूमि व्यवस्था और उससे सम्बद्ध प्रशासन की स्वायत्त प्रणालियां टूटने-फूटने लगीं। उसकी जगह नयी व्यवस्था कायम होने लगी। उस व्यवस्था ने आदिवासी जीवन में आर्थिक शोषण और सामाजिक अशांति के बीज बो दिये। ब्रिटिश शासकों ने उस व्यवस्था पर कब्जा जमा कर उसे ही ‘कानून का राज’ बना दिया। उसने आदिवासियों के पारम्परिक संगठनों और संस्थाओं को ध्वस्त किया। साथ ही उसने आदिवासी समाज में लोभ-लाभ के ऐसे तंत्र का निर्माण किया जो आम आदिवासियों में आत्महीनता पैदा करे और कुछ वर्गों को पतन के लिए प्रेरित करे। परम्परागत भूमि व्यवस्था के तोड़े जाने और धार्मिक आधार पर सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन किये जाने की अंग्रेजों की कोशिशों के खिलाफ 1789 से 1831-32 के बीच झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र में कई आंदोलन हुए। 1831-32 का कोल विद्रोह उन आंदोलनों का चरमोत्कर्ष था। वह सही मायने में अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम आदिवासी संघर्ष था। उसके पूर्व 1789 से 1820 के बीच मुंडा जनजाति के बीच विद्रोह की भावना सुलग रही थी। उसकी मुख्य वजह थी खुंटकट्टी व्यवस्था का विघटन। 1764 में बक्सर के युद्ध में पराजय के बाद मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बंगाल का शासन तंत्रा ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दिया। पंचपरगना के मैदानी क्षेत्रों में खुंटकट्टी व्यवस्था पर अंग्रेज शासन के प्रहार के कारण मुंडा जनजाति के लोगों को भाग कर दक्षिणी खूंटी और पूर्वी तमाड़ की पहाड़ियों के बीच बसना पड़ा था। कोल विद्रोह के रूप में मुंडा जनजाति के असंतोष की आग फूटी। उसे उरांव एवं अन्य जनजातियों का सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ। विद्रोह की वह आग सिंहभूम से लेकर पलामू तक फैली। खरवारों ने भी उस विद्रोह का समर्थन किया। कोल विद्रोह के दौरान छोटानागपुर के तमाड़, बुंडू, सिल्ली और पंचपरगना के तमाम कोलों ने हथियार उठा लिये। यूं 1932 में विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा लेकिन अंग्रेज हुकूमत को भी जनजातीय क्षेत्र के विद्रोहियों से समझौता करना पड़ा। अंग्रेज हुकूमत ने टुकड़े-टुकड़े में समझौता कर समाज को बांटने और फिर कुचलने की अपनी रणनीति के तहत दक्षिण-पश्चिम सीमा एजेंसी की स्थापना की। विल्किंसन रूल के नाम से जनजातीय क्षेत्र में प्रशासन, दीवानी एवं फौजदारी न्याय व्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया को मंजूर किया। उस प्रक्रिया में मुंडाओं की जमीन की सुरक्षा की मांग शामिल नहीं की गयी। सो 1833 आते-आते दालभूम एवं मानभूम क्षेत्र में भूमिज विद्रोह शुरू हुआ। उसे उसी वर्ष सेना के जरिये कुचल दिया गया। कोल विद्रोह मुख्यत: बिचौलियों के खिलाफ संघर्ष के रूप में प्रगट हुआ। उस विद्रोह को समझौता के जरिये दबा दिये जाने और भूमिज विद्रोह को सेना की मदद से कुचल दिये जाने के बाद बिचौलिये फिर लौटे। इस बार बिचौलियों के वर्ग ने ब्रिटिश हुकूमत के संरक्षण में नये तेवर के साथ पूरे आदिवासी क्षेत्र में कहर बरपाया। तब से ‘सरदार आंदोलन’ की नींव पड़ी। 1850 से पूरे आदिवासी क्षेत्र में ईसाई धर्म का प्रचार भी जोरों से शुरू हुआ। मुंडा आदिवासियों पर ईसाई धर्म प्रचारकों का प्रभाव बढ़ा। मुंडा आदिवासियों में से कई लोगों ने अपने अस्तित्व और अधिकारों की सुरक्षा की उम्मीद से ईसाई धर्म स्वीकार किया। करीब 50 सालों से लड़ते-लड़ते थकी मुंडा जनजाति को ईसाई धर्म में मुक्ति का रास्ता भी दिखा लेकिन वहां से भूमि व्यवस्था नयी उलझनों में फंस गयी। गैरईसाई मुंडा जनजाति के बड़े किसानों में यह धारणा पुख्ता होने लगी कि चर्च के पादरी अपने ईसाई रैयतों के लाभ के लिए जमींदारी के कामकाज में हस्तक्षेप करते हैं। 1857 का सिपाही विद्रोह शुरू होते ही मुंडा जनजाति का विद्रोह अंग्रेज हुकूमत के साथ-साथ चर्च के पादरियों के खिलाफ भी भड़क उठा। 1857 का गदर शांत हुआ तो सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरू हो गया। 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित वह आंदोलन 1890 में आकर राजनीतिक आंदोलन में तब तब्दील हुआ, जब बिरसा मुंडा ने कमान संभाली। बिरसा का जन्म 1875 में हुआ और उनके व्यक्तित्व का निर्माण और शिक्षा-दीक्षा ईसाई मिशनरियों के संरक्षण में हुई। लेकिन 1886-87 में ही मुंडा समाज के संचालन में प्रधन माने जाने वाले सरदारों का ईसाई मिशनरियों से मोहभंग हो चुका था। स्कूली शिक्षा के दौरान ही बिरसा के व्यक्तित्व में जिज्ञासा और समझदारी के साथ विद्रोह के लक्षण प्रकट होने लगे। आदिवासियों में भूतकेत्ता, पहनाई आदि की परम्परा है। इसमें वे धार्मिक कृत्यों के लिए जमीन छोड़ते हैं। उस समय ईसाई पादरी उस जमीन पर मिशन का कब्जा की कोशिश करते थे। बिरसा ने उसे ईसाई मिशनरियों और गोरों की साजिशों के हिस्से के रूप में पहचाना। उन्होंने खुलेआम उनकी आलोचना शुरू की। इसके कारण मिशनरियों ने बिरसा को स्कूल से निकाल दिया। युवा बिरसा सरदार आंदोलन में शामिल हो गये। उनका नारा था – ‘साहब-साहब एक टोपी है।’ यानी सभी गोरे लोग चाहे वे शासक-प्रशासक हों या मिशनरी के पादरी हों सब के सर पर एक जैसी टोपी है। सत्ता की टोपी! बिरसा ने ईसाई मिशन की सदस्यता छोड़ कर 1890-91 से करीब पांच साल तक धर्म, नीति, दर्शन आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उस दौरान उन्होंने आनंद पांडेय नामक व्यक्ति से हिंदुओं के वैष्णव पंथ के आचार-व्यवहार के बारे में खास तौर से शिक्षा प्राप्त की। वैयक्तिक और सामाजिक जिदंगी पर धर्म के प्रभाव का मनन किया। यहां तक कि उन्होंने धर्मोपदेश देना और धर्माचरण का पाठ पढ़ाना भी शुरू किया। वह सरदार आंदोलन में सक्रिय थे ही। उनके धर्मपरायण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोग उनके अनुयायी बनने लगे। भूमि आंदोलन के साथ धार्मिक अभियान चलने लगा। उसी बीच बिरसा जहां परम्परागत धर्म की ओर लौटे, ईसाई धर्म छोड़ने वाले सरदार बिरसा के अनुयायी बनने लगे। बिरसा का पंथ मुंडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना। उसके धार्मिक विधान मुंडा समाज की आंतरिक बुराइयों से निजात पाने और आत्महीनता से मुक्ति दिलाने के कारगर उपाय साबित हुए। बिरसा का वह धार्मिक अभियान प्रकारांतर से आदिवासियों को अंग्रेज हुकूमत और ईसाई मिशनरियों दोनों के विरोध में संगठित होकर आवाज बुलंद करने को प्रेरित करने लगा। उस दौर में बिरसा की लोकप्रियता यूं परवान चढ़ी कि उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे। बिरसा ईश्वर के दूत माने जाने लगे। उनका आंदोलन धीरे-धीरे जनांदोलन का रूप धारण करने लगा। उस आंदोलन और बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नयी जान आ गयी। अगस्त 1895 में वन सम्बंधी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व बिरसा के हाथ में आया और धार्मिक आधारों पर एकजुट बिरसाइतों का संगठन जुझारू सेना की तरह मैदान में उतर गया। तब से पूरे सरदार आंदोलन के नेतृत्व की बागडोर बिरसा के हाथ में आ गयी। बकाये की माफी के लिए बिरसा ने चाईबासा तक की यात्रा की। गांव-गांव से रैयतों को एकजुट कर चाईबासा ले जाया गया। अंग्रेज हुकूमत ने बिरसा की मांग को ठुकरा दिया। बिरसा ने भी ऐलान कर दिया – ‘सरकार खत्म हो गयी। अब जंगल-जमीन पर आदिवासियों का राज होगा।’ उपलब्ध इतिहास के अनुसार बिरसा के नेतृत्व में बिरसाइतों के संगठन के तेवर देख शासन पहले से ही सावधन हो चुका था। बिरसा ने वन सम्बंधी बकाये की माफी के लिए ब्रिटिश हुकूमत को आवेदन देने और प्रशासनिक पदाधिकारियों को समझाने-बुझाने के लोकतांत्रिक तरीकों को अपनाया। लेकिन शासन ने गरीब आदिवासियों की फरियाद सुनने की बजाय बिरसा और उनके अनुयायियों की गिरफ्तारी का जाल फैलाया। बिरसा ने अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ बगावत का ऐलान कर दिया। 9 अगस्त, 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार करने की कोशिश की गयी। उन्हें गिरफ्तार कर भी लिया गया लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया। उसके बाद से आंदोलन की दिशा ही बदल गयी। 16 अगस्त, 1895 को गिरफ्तार करने की योजना के साथ आये पुलिस बल को बिरसा के नेतृत्व में उनके संगठन ने सुनियोजित तरीके से घेर लिया। किसी को मारा नहीं गया लेकिन बिरसा के करीब 900 अनुयायियों ने पुलिस बल को खदेड़ दिया। 24 अगस्त, 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस दल चलकद रवाना हुआ। रात में ही चुपके से पुलिस ने बिरसा के घर को घेरा और अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार किया। उन्हें रांची जेल ले जाया गया। सुबह होते ही बिरसा की गिरफ्तारी की खबर चारों तरफ फैल गयी। मुंडा और कोल समाज ने बिरसाइतों के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। उधर हुकूमत ने बिरसा पर मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदल कर खूंटी किया ताकि उनको आदिवासी जनता के सामने ‘बौना’ साबित किया जा सके। उसका उल्टा असर हुआ। बिरसा के दर्शनार्थ लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। भीड़ की उत्तेजना के कारण मुकदमे की कार्यवाही रोक कर बिरसा को तुरंत जेल भेज दिया गया। बिरसा पर यह आरोप लगाया गया कि वह चलकद में लोगों को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसा रहे थे। वह राजद्रोही हैं। वह अपने कर्त्तव्य पालन में लगे सरकारी पुलिस कर्मियों पर आक्रमण का नेतृत्व कर रहे थे। डिप्टी कमिश्नर ने बिरसा के आंदोलन और सरदार आंदोलन के बीच सम्बंध होने की पुष्टि करते हुए तमाम आंदोलनकारियों के साथ सख्ती से निपटने और मुंडा समाज को ‘नकली पैगम्बरों और दुष्ट आंदोलनकारियों’ के अभियानों में शिरकत करने से रोकने की कार्रवाई पर अमल करने की आवश्यकता पर बल दिया। उसने अपने फैसले में बिरसा पर आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लोगों में नफरत की आग भड़का रहे हैं। आदिवासी समाज में भयमुक्ति का ऐसा संदेश फैला रहे हैं, जिससे सरकारी हथियार और गोला-बारूद व्यर्थ सिद्ध हो जायें। बिरसा की गिरफ्तारी के बाद उनके कई अनुयायियों और सरदारों को भी हिरासत में ले लिया गया था। उन सब पर शासन के खिलाफ विद्रोह करने और लोगों को भड़काने के आरोप में भारतीय दंड संहिता की धरा 505 के तहत मुकदमा चला। बिरसा को दो साल के सश्रम कारावास और 50 रु. जुर्माना की सजा दी गयी। बिरसा के 15 साथियों को भी यही सजा दी गयी। 19 नवम्बर, 1895 को सजा सुनाये जाने के बाद बिरसा को रांची जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया गया। 1897 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा। उस वक्त चेचक की महामारी भी फैली। आदिवासी समाज बिरसा के नेतृत्व के अभाव में भी हुकूमत के दमन-शोषण, अकाल और महामारी के खिलाफ एक साथ जूझता रहा। ठीक उसी वक्त सरकार ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मनाने के लिए देश में उत्सव एवं समारोहों का आयोजन कर रही थी। उस अवसर पर देश में कई आंदोलनकारियों को रिहा करने का फैसला किया गया। तब तक बिरसा की सजा की अवधि भी लगभग समाप्त हो गयी थी। सजा खत्म होने के कुछ दिन पूर्व बिरसा को रांची जेल ले आया गया। अनुमानत: 30 नवम्बर, 1897 को बिरसा जेल से छूटे। वह रिहा होने के बाद पुन: चलकद लौटे और सीधे अकाल तथा महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा में लग गये। इस सिलसिले में वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने लगे। दुखियों की सेवा में उन्होंने दिन-रात एक कर दिया। वह काम ही झारखंड क्षेत्र में बिरसा के अनुयायियों के पुन: संगठित होने का आधार बना। बिरसा ने पीड़ितों की सेवा करते हुए धार्मिक सु्धार का अपना अभियान जारी रखा। वह लोगों को उपदेश देते थे और उनके अनुयायी उनके धार्मिक विचारों का प्रचार करते थे। उसी क्रम में गुप्त राजनीतिक सभाएं होती थीं। धार्मिक अभियान और प्रचार का तंत्र राजनीतिक आंदोलन को संगठित करने के साथ ही उस गतिविधि को गुप्त रखने का सबसे कारगर माध्यम साबित हुआ। उस दौरान बिरसा ने अपने अनुयायियों के साथ पैतृक स्थानों का दौरा किया। उन्होंने आदिवासियों के परम्परागत धार्मिक मूल्यों को पुनर्जीवित करने का आह्वान किया। पारम्परिक मूल्यों के आधर पर ही उन्होंने बलि देने की सामाजिक प्रथा, भूत-प्रेतों की पूजा, हंड़िया के अंधाधुंध सेवन आदि के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया। उस अभियान का असर यह हुआ कि राजनीतिक आंदोलन की रणनीति पर विचार के लिए आयोजित गुप्त बैठकों में आंदोलन के अहिंसात्मक और शांतिपूर्ण तरीकों पर बहस चलने लगी। फरवरी, 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की एक सभा में बिरसा ने आंदोलन की नयी नीति की घोषणा की। उसमें उन्होंने अपने खोये राज्य के लिए धर्म और शांति का रास्ता अपनाने का आह्नान किया। सरदारों ने उसका विरोध किया लेकिन मुंडा समाज को संगठित करने के लिए बिरसा का नेतृत्व सबकी पहली जरूरत थी। इसलिए उनकी घोषणा को विद्रोह की पहली रणनीति के रूप में स्वीकार किया गया। दो साल तक बिरसा के नेतृत्व में समाज को परम्परागत मूल्यों से लैस करने और संगठन को मजबूत करने के लिए शांतिपूर्ण गतिविधियां चलीं। उस बीच अपनायी गयी नीति और कार्यक्रमों में ईसाई मिशनरियों, अंग्रेज सरकार और जमींदार किसी के भी खिलाफ सीधे संघर्ष की कार्रवाइयों का निषेध किया गया। धार्मिक अभियान के तहत सामाजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को केंद्र में रखकर आदिवासी समाज को अंदर से मजबूत एवं संगठित करने का सिलसिला चलता रहा। हुकूमत को लगा कि सब कुछ शांत हो गया। 1899 का अंत आते-आते अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति जागृत आदिवासी समाज में अधिकार हासिल करने की बेचैनी प्रगट होने लगी। समाज संचालन की परम्परागत प्रणालियों, सांस्कृतिक मूल्यों और धार्मिक कृत्यों के प्रति बढ़ती जिज्ञासा और समझ से उन तमाम गतिविधियों का राजनीतिक निहितार्थ प्रगट होने लगा। धार्मिक गतिविधियों के जरिये अधिकार हासिल करने और अपने खोये राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य जमींदारों को लगान न देने, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने और जंगल के अधिकार वापस लेने के संकल्प के रूप में व्यक्त होने लगा। बिरसा के नेतृत्व में कोलेबिरा, बानो, लोहरदग्गा, तोरपा, कर्रा, बसिया, खूंटी, मुरहू, बुंडू, तमाड़, पोड़ाहाट, सोनाहातू आदि स्थानों पर बैठकें हुईं। अंतत: 24 दिसम्बर, 1899 को रांची जिला के तोरपा, खूंटी, तमाड़, बसिया आदि से लेकर सिंहभूम जिला के चक्रधरपुर थाने तक में विद्रोह की आग भड़क उठी। 1897 के अकाल और महामारी से लोग अभी उबर भी नहीं पाये थे कि 1899 में रबी की फसल मारी गयी। सरकार ने किसानों की मांग ठुकरा दी और वह आम आदिवासियों की समस्याओं के प्रति उदासीन रही। उल्टे विद्रोह की आग भड़की तो सिंहभूम से रांची तक करीब 500 वर्गमील के क्षेत्र में पुलिस की टुकड़ियां तैनात कर दी गयीं। सेना की एक कम्पनी बुला ली गयी। बिरसा को गिरफ्तार करने का जबर्दस्त अभियान शुरू कर दिया गया। सरदारों पर हमला करने और आंदोलन का साथ देने वाले मुंडा-मानकियों को गिरफ्तार करने व आत्मसमर्पण न करने वाले विद्रोहियों की घर-सम्पत्ति कुर्क करने की पूरी योजना पर अमल शुरू हुआ। जनवरी 1900 में बिरसा की तलाश में पुलिस और सेना ने पोड़ाहाट के जंगलों तक को छान मारा। 500 वर्गमील क्षेत्र के गांवों में पुलिस तैनात कर उसके खर्च का बोझ स्थानीय जनता पर डालने की घोषणा कर दी गयी ताकि वह बिरसा के आंदोलन का समर्थन न करे। सरकार ने बिरसा की सूचना देनेवाले और गिरफ्तारी में मदद देने वाले मुंडा या मानकी को 500 रफ. का पुरस्कार देने के साथ यह ऐलान भी कर दिया था कि ऐसे व्यक्ति को पूरे जीवन के लिए उसके गांव का लगानमुक्त पट्टा दिया जायेगा। इन सब प्रलोभनों के बावजूद हुकूमत बिरसा को गिरफ्तार नहीं कर पायी। उसी दौर में बिरसा ने आंदोलन की पुरानी रणनीति बदलने की घोषणा की और विद्रोह की आग जंगल की आग की तरह फैल गयी। बिरसा ने उरांव और कोल से सम्पर्क किया। संघर्ष में सक्रिय सहयोग की अपील की। करीब साठ स्थानों पर संगठन के केंद्र बने। डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडाओं की बैठक हुई। उसमें अंग्रेज शासक, ईसाई मिशनरी और जमींदारों के खिलाफ एक साथ संघर्ष करने की रणनीति बनी। बिरसा ने संघर्ष के शांतिपूर्ण तरीकों के समर्थन में अपने विचार रखे। मुंडाओं ने कहा कि स्थितियां बदल चुकी हैं। अब हुकूमत का शोषण-दमन सहनशक्ति की सीमा पार कर चुका है। जनता साथ है। हथियारबंद संघर्ष को मान्य करना होगा। बिरसा ने हथियारबंद संघर्ष की अनुमति दे दी। इसी के साथ शुरू हुआ – उलगुलान! बिरसा का महान विद्रोह। झारखंड की जनता का सांस्कृतिक पुनर्जागरण और बाहरी लोगों के खिलाफ हथियारबंद संघर्ष की इस दोहरी प्रक्रिया ने बीसवीं सदी के शुरू में ही नया इतिहास रच दिया। ऐसा इतिहास जो पहले के इतिहास से अलग था और बाद के तमाम क्षेत्रीय और राष्ट्रीय संघर्षों की गति-दिशा का पैमाना बना। वह ऐसा संघर्ष था जिसमें जनता अपनी मुक्ति के लिए जान देने को सहर्ष तैयार होती है। और, मुक्ति का मार्ग दिखाने वाले और उस राह पर खुद सबसे आगे चलने वाले इंसान को जनता भगवान मानती है। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार भारी दबाव के बाद बिरसा ने हथियार उठाने की अनुमति दी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार तो बिरसा आंदोलन के उस दौर की तुलना आजादी के आंदोलन में बहुत बाद 1942 में प्रगट अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है। हां, विस्तार के लिहाज से बिरसा आंदोलन का वह दौर सिर्फ झारखंड क्षेत्र तक में सीमित था। 1942 में महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। ऐसा दौर इतिहास में कभी-कभी ही आता है, जब जनता अपने नेता के आह्वान पर अपने हाथ में संघर्ष की कमान ले लेती है। उस वक्त हिंसा-अहिंसा की सैद्धांतिक बहस बेमानी हो जाती है। जनता का हुंकार और बलिदान का जुनून इस बुलंदी पर होता है कि यह सवाल भी बेमानी हो जाता है कि हथियारों के बिना निरंकुश राज्यसत्ता के सशस्त्र और हिंसक बल से टकराना कितना व्यावहारिक है? जनवरी, 1900 में बिरसा आंदोलन के दौर में भी ऐसी ही स्थितियां पैदा हुईं और बिरसा ने हथियार उठाने की अनुमति दे दी। हुकूमत ने बिरसा आंदोलन के तमाम केंद्रों पर छापेमारी की। बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं। गांव-गांव में पुलिसिया दमन हुआ। आंदोलन को कुचलने के लिए लोगों की जमकर पिटाई होने लगी। सरदारों और मुंडा-मानकियों की तलाशी और कुर्की-जब्ती की कार्रवाई चलने लगी। आम आदिवासियों की घर-सम्पत्ति लूटी जाने लगी। आदिवासी औरतों की इज्जत लूटी जाने लगी। दूसरी तरपफ बिरसा के नेतृत्व में आंदोलन के करीब 60 जत्थों ने एक साथ हुकूमत के ठिकानों और गिरजाघरों पर हमला किया। अफसरों, पुलिस, अंग्रेज सरकार के संरक्षण में पलनेवाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया। खूंटी, तोरपा, कर्रा, बसिया, तमाड़, सर्बादा, बुर्जू, मुरहू आदि कई इलाकों के मिशनरी केंद्रों और गिरजाघरों पर हमला किया गया। चक्रधरपुर, पोड़ाहाट आदि इलाकों में भी सरकारी कार्यालयों और आवासों में आग लगा दी गयी। जनाक्रोश का विराट रूप देख भयभीत सरकारी कर्मचारी, मिशन के लोग, पादरी, जमींदार और महाजनों में भगदड़ मच गयी। वे कार्य क्षेत्र और घर-बार छोड़कर भाग खड़े हुए। जनवरी के प्रथम सप्ताह में ही खूंटी थाना सहित रांची जिला के कई थानों पर आंदोलनकारियों ने धवा बोल दिया। शुरू में ही आंदोलनकारियों के गोरिल्ला युद्ध ने रांची और सिंहभूम जिलों में हुकूमत की चूलें हिला दीं। उस दौरान आंदोलनकारियों के हाथों कुल आठ लोग मारे गये। उनमें चार कांस्टेबुल, एक चौकीदार और तीन अन्य लोग शामिल थे। पुलिस रिकार्ड के अनुसार उस दौरान आंदोलनकारियों के खिलाफ हत्या के प्रयास के 32 और आगजनी के 81 मुकदमे दर्ज किये गये। अंतत: हुकूमत ने बिरसा आंदोलन को कुचलने के लिए पुराना रांची जिला और पुराना सिंहभूम जिला सेना के हवाले कर दिया। तब बिरसाइतों और सेना के बीच सीध संघर्ष शुरू हुआ। एक तरफ तीर-धनुष, कुल्हाड़ी और भाले-बर्छों से लैस बिरसाइत और दूसरी तरफ सेना की बंदूकें! 8 जनवरी, 1900 को डोम्बारी पहाड़ियों पर जमी बिरसाइत के जत्थे को सेना ने घेर लिया। सेना ने विद्रोहियों को हथियार डालने को कहा। जवाब में विद्राहियों का नारा गूंजा- ‘गोरो, अपने देश वापस जाओ।’ 9 जनवरी को सेना ने उन पर हमला बोल दिया। विद्रोहियों और फौज के बीच भयंकर युद्ध हुआ। करीब 200 मुंडा मारे गये। मारे गये लोगों में स्त्रियां और बच्चे भी थे। सैलरकब पहाड़ी पर हुए संघर्ष में तो ब्रिटिश हुकूमत के सिपाहियों ने अंधाधुंध गोलियां चला कर कई-कई आदिवासियों को भून दिया। उनमें एक ऐसी महिला भी थी, जिसकी गोद में दूधपीता बच्चा था। दोनों मारे गये। सेना की ऐसी घेराबंदी और संघर्ष के बावजूद बिरसा पकड़ में नहीं आये। बिरसा के अंतिम दिनों की उपलब्ध जानकारी के अनुसार रांची जिला में सेना के साथ हुए संघर्ष के बाद उन्होंने अपने संघर्ष संचालन के केंद्र बदल लिये। वह सिंहभूम जिला के जमकोपाई के जंगलों की ओर कूच कर गये। पूरे जनवरी माह में अंग्रेज हुकूमत रांची जिला के गांव-गांव में कहर बरपाती रही और बिरसा की तलाश में खाक छानती रही। बिरसा ने सिंहभूम के घने जंगलों में संघर्ष संचालन के केंद्र बनाये। रोगोटो नामक स्थान उनकी गतिविधियों का नया केंद्र बना। पोड़ाहाट के विस्तृत जंगल में संगठन और प्रशिक्षण के केंद्र बने। बिरसा रातों में गांव-गांव जाकर आदिवासी जनता से सम्पर्क करते थे। दिन भर घने जंगलों में गुप्त स्थानों पर प्रशिक्षण का काम होता था और संघर्ष की रणनीति तैयार की जाती थी। 28-30 जनवरी, 1900 के आसपास सूचना मिली कि दो प्रमुख मुंडा सरदारों के साथ करीब 32 विद्रोहियों ने हुकूमत के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। बिरसा चौकस और सतर्क हो गये। उनके संगठन के प्रमुख लोगों को यह आभास होने लगा कि कुछ मुंडा हुकूमत के भय अथवा पुरस्कार के लोभ में आकर विश्वासघात कर सकते हैं। उसके तत्काल बाद ही सेना सिंहभूम जिला के गांवें और जंगलों को रौंदने लगी तो यह साफ हो गया कि कुछ लोगों ने गद्दारी की और बिरसा के पता-ठिकाना की सूचना दी है। बिरसा ने पोड़ाहाट के जंगलों में जल्दी-जल्दी स्थान बदलने की रणनीति अख्तियार की। इस वजह से बिरसाइतों से सम्पर्क में विलम्ब होने लगा। संगठन के प्रमुखों से सम्पर्क और संवाद में मुश्किलें पैदा हो गयीं। कहा जाता है कि 3 फरवरी, 1900 को सेंतरा के पश्चिम स्थित जंगल के काफी भीतर बने एक शिविर में बिरसा को उस समय धर-दबोचा गया, जब वह गहरी नींद में थे। उपद्रव की आशंका को देख पुलिस के भारी बंदोबस्त के साथ उन्हें तत्काल खूंटी के रास्ते रांची ले जाया गया। उन्हें रांची कारागार में बंद किया गया। उसके बाद तो हुकूमत ने विद्रोह को कुचलने के लिए नंगा नाच किया। हिंसाबल, धानबल, झूठ-फरेब, बेईमानी हर तरह से भोली-भाली आदिवासी जनता को गुमराह करने और विद्रोहियों को शांत करने का प्रयास किया गया। बिरसाऔरअन्य482 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया । सब पर मुकदमे की कार्रवाई हुई। सारी कार्रवाई गोपनीय ढंग से की गयी। उनके खिलाफ करीब 15 तरह के आरोप दर्ज किये गये थे, जिनमें ऐटकाडीह में कांस्टेबुलों की हत्या, सरवदा में दो मिशनरियों पर हमला, अगजनी, हिंसा-हत्या करने, सरकार उलटने और बिरसा राज की स्थापना के लिए भीड़ इकट्ठा करना, चक्रधरपुर में एक चौकीदार की हत्या, कुंक्तूगुट्टू में गिरजाघर जलाया जाना आदि शामिल थे। सिपर्फ 98 पर ही दोष सिद्ध किया जा सका। कुल मिला कर 3 विद्रोहियों को मुत्युदंड, 44 को आजीवन देश-निर्वासन की सजा मिली। 10 आंदोलनकारियों को 10-10 साल, 8 को 7-7 साल और 23 लोगों को 5-5 साल के सश्रम कारावास की सजा सुनायी गयी। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उसके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी की सजा दी गयी। गया मुंडा की पत्नी माकी को भी हिंसा-हत्या में सक्रिय होने के आरोप में दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गयी। जेलबंद 296 विद्रोहियों के खिलापफ कोई आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका। लेकिन मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में ही 20 मई, 1900 को जेल में बिरसा ने भोजन करने में अनिच्छा जाहिर की। भोजन नहीं किया। उसी दिन उन्हें अदालत ले जाया गया तो तबियत खराब होने के कारण जेल वापस भेज दिया गया। जेल अस्पताल से कुछ दवा दी गयी। दस दिन तक जेल के अंदर से उनकी तबियत खराब होने की सूचना दी जाती रही। 1 जून, 1900 को जेल अस्पताल के चिकित्सक की ओर से डिप्टी कमिश्नर को सूचना दी गयी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। बाद के एक सप्ताह तक इलाज से उनकी हालत में सुधार की सूचना दी जाती रही। 9 जून, 1900 की सुबह अचानक सूचना दी गयी कि बिरसा नहीं रहे। अचानक तबियत बेहद बिगड़ी और उनकी मृत्यु हो गयी! इस तरह एक क्रांतिकारी जीवन का अंत हो गया। सिर्फ 25 साल की जिंदगी में ही बिरसा ने वह काम किया जो किसी व्यक्ति को युगपुरुष बनाता है। आदिवासी समाज ने उनके जीते जी उन्हें भगवान का अवतार माना। मृत्यु के बाद आज तक आदिवासी जनमानस में बिरसा की छवि ऐसे क्रांतिदूत की है, जो अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से ‘इंसान से भगवान’ बन गया। इंसान बना भगवान: बिरसा के जन्म दिन पर विवाद कायम है। आम तौर पर मान्य यह है कि उनका जन्म 15 नवम्बर, 1875 को हुआ। उनका जन्म वृहस्पतिवार को हुआ था। मुंडारी भाषा में वृहस्पतिवार को ‘बिरसा’ कहा जाता है। इसके कारण मां-बाप ने उनका नाम बिरसा रखा। लेकिन तारीखों का इतिहास बताता है कि वर्ष 1875 में नवम्बर की 15वीं तारीख का दिन वृहस्पतिवार नहीं था। अगर वृहस्पतिवार और 15 नवम्बर सही है तो उनके जन्म का वर्ष 1875 नहीं होगा। तब उनके जन्म का वर्ष या तो 1866 होगा या फिर 1877। अगर वर्ष और दिन सही है तो उस हिसाब से बिरसा का जन्म सोमवार को हुआ। उनका जन्म चलकद नामक गांव में हुआ। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा था और मां का नाम कर्मी मुंडा था। सुगना रांची जिला के उलिहातू गांव के निवासी लकरी मुंडा के दूसरे पुत्र थे। सुगना मुंडा का परिवार गरीब था। बिरसा के जन्म के पहले उनके चाचा बाड़ा कानू उलिहातू में ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके थे। बिरसा के पिता ने भी ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था और धीरे-धीरे जर्मन ईसाई मिशन के प्रचारक पद पर भी पहुंचे लेकिन वे बिरसा के जन्म के पहले ईसाई बने या बाद में, इस पर विवाद है। बहरहाल, कहा जाता है कि बिरसा का बचपन अपने माता-पिता के साथ चलकद गांव में बीता। लेकिन इसके साथ यह भी इतिहास में दर्ज है कि गरीब सुगना मुंडा ने बालक बिरसा के पालन-पोषण के लिए उसे मौसी के घर उलिहातू भेज दिया था। वहां बालक बिरसा मौसी की भेड़-बकरियां चराया करता था। इतिहास में इस बात का भी जिक्र है कि बिरसा बचपन में बोहंडा के जंगलों में भेड़ चराया करते थे। वह बांसुरी बजाने में प्रवीण थे। बिरसा ने अपनी पढ़ाई सलगा गांव के स्कूल में शुरू की। वह निम्न प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई के लिए बुर्जू गये और वहां के ईसाई मिशन से निम्न प्राथमिक विद्यालय की परीक्षा पास की। पिफरबुर्जूईसाईमिशनकेस्कूलमेंहीबिरसानेउच्चप्राथमिकस्तरकीपढ़ाईकी। बुर्जू में ही उनका बपतिस्मा संस्कार हुआ। बिरसा ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। इतिहासकारों के अनुसार उनका नाम ‘दाउद’ रखा गया। बिरसा होनहार थे। मिशन के लोग उनसे खुश थे। उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए चाईबासा के लूथरेन मिशन में भेजा गया। वह वहां मिडिल स्कूल में छात्रावास में रह कर पढ़ते थे। 1890 में उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया। बिरसा ने चाईबासा छोड़ दिया। 15 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़ कर वह गांव आ गये। उसके तुरंत बाद उन्होंने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। कहा जाता है कि बिरसा ने जर्मन ईसाई मिशन छोड़कर रोमन कैथलिक धर्म स्वीकार किया लेकिन कुछ ही दिन में उन्होंने ईसाई धर्म त्याग दिया। रोजी-रोटी के सिलसिले में वह कंदेर और गौरबेरा गये। उस दौरान बंदगांव में वह आनंद पांडेय नामक एक वैष्णव सन्यासी के सम्पर्क में आये। संन्यासी के प्रभाव में आकर उन्होंने मांस खाना छोड़ दिया और यज्ञोपवीत धारण किया। वह वहां तीन साल रहे और आनंद पांडेय से वैष्णव धर्म, नीति, दर्शन आदि की शिक्षा हासिल की। युवा बिरसा योगी बन गये। लौटकर बिरसा ने चलकद को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया। योगी के रूप में उन्होंने सेवा और बीमारों के इलाज के जरिये समाज में चेतना जागृति का अभियान शुरू किया। वह मुंडा सरदारों के आंदोलन का दौर था। उस दौरान इलाके में अकाल और महामारी भी फैली हुई थी। उन्होंने अकाल पीड़ितों और बीमारों की सेवा के साथ-साथ मुंडा समाज की अज्ञानता और अंधविश्वास के खिलाफ जेहाद छेड़ा। 1895 में ही बिरसा का सर्वथा नया रूप प्रगट होने लगा। वह क्रांतिकारी योगी के रूप में चर्चित होने लगे। लोग उनके उपदेश और ज्ञान की बातें सुनकर उनके अनुयायी बनने लगे। उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाने लगे। इतिहास और लोककथाओं के अनुसार बिरसा नीम के पेड़ के नीचे अपना आसन लगाते थे। वह जनेउ, खड़ाउ और हल्दी के रंग में रंगी धेती पहनते थे। वह प्रवचन करते थे। अपने प्रवचनों में सादा जीवन और उच्च विचार अपनाने का उपदेश देते और मुंडा समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार करते थे। उन्होंने सादा जीवन के लिए पैमाने निश्चित किये कि ईश्वर एक है और वह है सिंगबोंगा। भूत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है। सार्थक जीवन के लिए मांस-मछली अथवा सामिष भोजन का त्याग करना जरूरी है। हंड़िया पीना बंद करना होगा। उनके उपदेशों को सुनने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचने लगे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ कई किंवदंतियां जुड़ने लगीं। उनके सेवा कार्य और इलाज का असर यह था कि लोगों में उनके छूने भर से चंगा होने का विश्वास होने लगा। उनके कार्य ‘चमत्कार’ के रूप में प्रचारित होने लगे। उन्हें ईश्वर का दूत माना जाने लगा। आम गरीब आदिवासियों के लिए तो वह साक्षात ईश्वर हो गये। बिरसा के अनुयायियों का एक नया पंथ बनने लगा। उसी दौरान बिरसा ने वन सम्बंधी बकाये की माफी के आंदोलन का नेतृत्व किया। सरदारों के भूमि आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। बिरसा की लोकप्रियता से सरदार आंदोलन को नयी गति मिली। उन्होंने अपने आंदोलन का नेतृत्व बिरसा को सौंप दिया। धार्मिक संगठन की जमीन पर राजनीतिक आंदोलन के बीज पड़े। 1897 में वन संबंधी बकाये के आंदोलन के दौरान ब्रिटिश हुकूमत ने आदिवासी समाज की मांगों को ठुकरा दिया तो बिरसा ने ऐलान कर दिया कि अब जंगल पर अंग्रेजों का अधिकार नहीं रहेगा। बिरसाइत अंग्रेज सरकार के अफसरों का हुक्म नहीं मानेंगे। रैयत लगान नहीं देंगे। हुकूमत ने बिरसा को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। चलकद में 9 अगस्त, 1895 की सुबह उनको गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन उनके अनुयायियों ने उनको छुड़ा लिया। पुलिस बल को खदेड़ दिया। 24 अगस्त की रात को पुलिस दल ने चुपके से बिरसा के घर को घेर लिया। रात में उनको सोये में गिरफ्तार कर लिया। बिरसा पर शासन के खिलाफ विद्रोह करने और लोगों को भड़काने का आरोप लगाया गया। कोर्ट में मुकदमा चला। बिरसा और उनके 15 सहयोगियों को दो-दो साल की सजा सुनायी गयी। 50-50 रु.काजुर्मानाभीकियागया।उन्हेंहजारीबागजेलमेंरखागया।1897 में सजा पूरी होने के चंद दिन पहले उन्हें रिहा किया गया। ब्रिटिश हुकूमत महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती मना रही थी। उस अवसर पर कैदियों को रिहा करने का फैसला किया गया था। उसी के तहत बिरसा रिहा हुए। जेल से छूटने के दो साल बाद ही 1898 में डोम्बारी पहाड़ी से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का ऐलान हुआ। बिरसा ने धर्मानुसार राज्य करने का और उसके लिए विदेशी हुक्मरानों के खिलाफ शांतिपूर्ण आंदोलन का विचार रखा। मुंडा सरदारों को बिरसा का नेतृत्व स्वीकार था लेकिन वे संघर्ष में हिंसा का समर्थन करते थे। हिंसा और अहिंसा के द्वंद्व के बीच भी संगठन का काम जारी रहा। मुंडा सहित पूरे आदिवासी समाज को संघर्ष चेतना के एक सूत्र में बांधने का अभियान चलता रहा। 1899 के अंत में डोम्बारी पहाड़ी की बैठक में ही अंग्रेज हुक्मरानों, ईसाई मिशनरियों और जमींदारों के खिलाफ संघर्ष की नयी रणनीति बनी। बिरसा ने हथियार उठाने की अनुमति दे दी। इसके साथ शुरू हुआ- ‘उलगुलान’ यानी महासंग्राम। आदिवासी समाज ने संघर्ष, त्याग और बलिदान की अपूर्व कहानी लिखी। 3 फरवरी, 1900 को सेंतरा के पश्चिम जंगल के काफी भीतर बिरसा को सोये में पकड़ लिया गया। सरकार ने इसके लिए गद्दारों का सहारा लिया। गिरफ्तारी की सूचना फैलने के पहले ही उन्हें खूंटी के रास्ते रांची ले आया गया। उनके खिलाफ गोपनीय ढंग से मुकदमे की कार्रवाई की गयी। उन पर सरकार से बगावत करने और आतंक व हिंसा फैलाने के आरोप लगाये गये। मुकदमे में उनकी ओर से किसी प्रतिनिधि को हाजिर नहीं होने दिया गया। जेल में उनको अनेक प्रकार की यातनाएं दी गयीं। 20 मई को उनकी तबियत खराब होने की सूचना बाहर आयी। एक जून को उनको हैजा होने की सूचना फैली। 9 जून की सुबह जेल में ही उनकी मृत्यु हुई। 20वीं सदी के प्रथम वर्ष में बिरसा की मृत्यु के बाद आंदोलन लगभग समाप्त हो गया लेकिन ब्रिटिश हुकूमत को यह एहसास हो गया कि झारखंड क्षेत्र में सांस्कृतिक स्तर पर आदिवासी चेतना का जो पुनर्जागरण हुआ है, वह आर्थिक अथवा सामाजिक कारक की छोटी सी चिनगारी को राजनीतिक विद्रोह या आंदोलन की भीषण आग में बदल सकता है। इसलिए उसने भूमि सम्बंधी समस्याओं के समाधन के प्रयास शुरू कर दिये। बिरसा आंदोलन के गढ़ माने जाने वाले तमाम क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्ती का कार्य शुरू हुआ। काश्तकारी संशोधान अधिनियम के जरिये पहली बार मुंडा खुंटकट्टी व्यवस्था को कानूनी मान्यता दी गयी। भूमि अधिकार के अभिलेख तैयार कर बंदोबस्त की वैधनिक प्रक्रिया चलाने और भू-स्वामित्व के अंतरण की व्यवस्था को कानूनी रूप देने के लिए अंतत: छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम बनाया गया। यह ‘छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908’ के नाम से जाना जाता है। यह बिरसा आंदोलन का तात्कालिक और महत्वपूर्ण परिणाम था। हालांकि उस अधिनियम के बनने में आठ साल लगे। अधिनियम के बनने से भूमि सम्बंधी समस्याओं के समाधन की वैधानिक प्रक्रिया शुरू हुई और मुंडा क्षेत्र में व्याप्त असंतोष कुछ नियंत्रित हुआ। हालांकि यह प्रयास जनजातीय क्षेत्र में जारी स्वशासन की प्रणाली को खत्म कर ब्रिटिश हुकूमत की प्रणाली को स्थापित करने की रणनीति का ही हिस्सा था। हुकूमत ने उस कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर भी कई तब्दीलियां कीं। 1905 में खूंटी अनुमंडल बना और 1908 में गुमला अनुमंडल बना ताकि न्याय के लिए आदिवासियों को रांची तक की लम्बी यात्रा न करनी पड़े। इस बहाने क्षेत्र में स्वशासन की जनजातीय प्रणाली को ध्वस्त कर ब्रिटिश हुकूमत ने प्रशासन का अपना तंत्र कायम किया। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908 में उन तमाम पुराने कानूनों का समावेश किया गया, जो पिछले 25-30 सालों में भूमि असंतोष पर काबू पाने के लिए समय-समय पर लागू किये गये थे। उनमें 1879 का छोटानागपुर जमींदार और रैयत कार्यवाही अधिनियम, और 1891 का लगान रूपांतरण अधिनियम शामिल हैं। नये और समग्र अधिनियम में खुंटकट्टीदार और मुंडा खुंटकट्टीदार काश्तों को सर्वमान्य कानूनी रूप देने का प्रयास किया गया। कानून में यह आम व्यवस्था की गयी कि खुंटकट्टी गांव-परिवार में परम्परागत भूमि अधिकार न छिने। किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा जमीन हड़पे जाने की आशंका को खत्म करने के लिए डिप्टी कमिश्नर को विशेष अधिकार से लैस किया गया। कानून के तहत ऐसे बाहरी व्यक्ति को पहले उस क्षेत्र से बाहर निकालने का प्रावधान किया गया। मुंडा-मुंडा के बीच भूमि अंतरण की छूट और मुंडा व बाहरी व्यक्ति के बीच भूमि अंतरण पर प्रतिबंध के लिए कई नियम बने। उन नियमों के जरिये डिप्टी कमिश्नर के हाथ न्याय की कुंजी थमा दी गयी। डिप्टी कमिश्नर और उससे जुड़े प्रशासनिक अधिकारी झारखंड क्षेत्र को अंग्रेजी शासन के दायरे में लाने के सबसे कारगर एजेंट साबित हुए। इतिहास गवाह है कि बिरसा की मृत्यु के बाद झारखंड क्षेत्र में जितने भी विद्रोह और आंदोलन हुए, उन सबके लिए बिरसा आंदोलन सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पैमाना बना। उसका पहला प्रमाण है- ताना भगत आंदोलन।
ताना भगत आंदोलन बिरसा मुंडा आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद ताना भगत आंदोलन शुरू हुआ। वह ऐसा धार्मिक आंदोलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। वह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नये ‘पंथ’ के निर्माण का आंदोलन था। इस मायने में वह बिरसा आंदोलन का ही विस्तार था। मुक्ति-संघर्ष के क्रम में बिरसा ने जनजातीय पंथ की स्थापना के लिए सामुदायिकता के आदर्श और मानदंड निर्धरित किये थे। ताना भगत आंदोलन में उन आदर्शों और मानदंडों के आधर पर जनजातीय पंथ को सुनिश्चित आकार प्रदान किया गया। बिरसा ने संघर्ष के दौरान शांतिमय और अहिंसक तरीके विकसित करने के प्रयास किये। ताना भगत आंदोलन में अहिंसा को संषर्ष के अमोघ अस्त्र के रूप में स्वीकार किया गया। बिरसा आंदोलन के तहत झारखंड में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का ऐसा स्वरूप विकसित हुआ, जिसको क्षेत्रीयता की सीमा में बांध नहीं जा सकता था। ताना भगत आंदोलन ने संगठन का ढांचा और मूल रणनीति में क्षेत्रीयता से मुक्त रह कर ऐसा आकार ग्रहण किया कि वह गांधी के नेतृत्व में जारी आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन का अविभाज्य अंग बन गया। उपलब्ध इतिहास के अनुसार जतरा उरांव के नेतृत्व में उस आंदोलन के लिए जो संगठन नये पंथ के रूप में विकसित हुआ, उसमें करीब 26 हजार सदस्य शामिल थे। वह भी वर्ष 1914 के दौर में! जतरा उरांव का जन्म वर्तमान गुमला जिला के बिशुनपुर प्रखंड के चिंगारी गांव में 1888 में हुआ था। जतरा उरांव ने 1914 में आदिवासी समाज में पशु- बलि, मांस भक्षण, जीव हत्या, शराब सेवन आदि दुर्गुणों को छोड़ कर सात्विक जीवन यापन करने का अभियान छेड़ा। उन्होंने भूत-प्रेत जैसे अंधविश्वासों के खिलाफ सात्विक एवं निडर जीवन की नयी शैली का सूत्रपात किया। उस शैली से शोषण और अन्याय के खिलाफ लड़ने की नयी दृष्टि आदिवासी समाज में पनपने लगी। तब आंदोलन का राजनीतिक लक्ष्य स्पष्ट होने लगा। सात्विक जीवन के लिए एक नये पंथ पर चलने वाले हजारों आदिवासी जैसे सामंतों, साहुकारों और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संगठित ‘अहिंसक सेना’ के सदस्य हो गये। जतरा भगत के नेतृत्व में ऐलान हुआ- माल गुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टैक्स नहीं देंगे। उसके साथ ही जतरा भगत का विद्रोह ‘ताना भगत आंदोलन’ के रूप में सुर्खियों में आ गया। आंदोलन के मूल चरित्र और नीति को समझने में असमर्थ अंग्रेज सरकार ने घबराकर जतरा उरांव को 1914 में गिरफ्तार कर लिया। उन्हें डेढ़ साल की सजा दी गयी। जेल से छूटने के बाद जतरा उरांव का अचानक देहांत हो गया लेकिन ताना भगत आंदोलन अपनी अहिंसक नीति के कारण निरंतर विकसित होते हुए महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गया। यह तो कांग्रेस के इतिहास में भी दर्ज है कि 1922 में कांग्रेस के गया सम्मेलन और 1923 के नागपुर सत्याग्रह में बड़ी संख्या में ताना भगत शामिल हुए थे। 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में ताना भगतों ने महात्मा गांधी को 400 रु. की थैली दी थी। कालांतर में रीति-रिवाजों में भिन्नता के कारण तानाभगतों की कई शाखाएं पनप गयीं। उनकी प्रमुख शाखा को सादा भगत कहा जाता है। इसके अलावे बाछीदान भगत, करमा भगत, लोदरी भगत, नवा भगत, नारायण भगत, गौरक्षणी भगत आदि कई शाखाएं हैं। 1948 में देश की आजाद सरकार ने ‘ताना भगत रैयत एग्रिकल्चरल लैंड रेस्टोरेशन एक्ट’ पारित किया। यह अधिनियम अपने आप में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ताना भगतों के आंदोलन की व्यापकता और उनकी कुर्बानी का आईना है। इस अधिनियम में 1913 से 1942 तक की अवधि में अंग्रेज सरकार द्वारा ताना भगतों की नीलाम की गयी जमीन को वापस दिलाने का प्रावधान किया गया।
मानकी-मुंडा प्रणाली बनाम कोल्हानिस्तान 1978-80 में उभरे विल्किंसन रूल के बारे में अब तक सब मौन हैं। कोई यह स्पष्ट रूप से नहीं बता पाता कि विल्किंसन रूल अभी भी कोल्हान में लागू है या खत्म हो गया! हुआ यह कि सिंहभूम जिले के चाईबासा सदर, टोन्टो और चक्रधरपुर प्रखंडों का जो इलाका ‘कोल्हान’ के नाम से चर्चित है, वहां के कुछ नेताओं ने 1982-83 में कोल्हान रक्षा संघ के बैनर तले अपने संवैधानिक अधिकार के नाम पर विल्किंसन रूल, 1837 को जिंदा करार देते हुए मानकी-मुंडा प्रथा और ‘कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट’ की आवाज बुलंद की। इस सिलसिले में कोल्हान रक्षा संघ के नेता नारायण जोंको और उच्च न्यायालय की रांची पीठ में अधिवक्ता क्राइस्ट आनंद टोपनो ने एक दस्तावेज तैयार किया। वे वह दस्तावेज लेकर जेनेवा होते हुए लंदन पहुंच गये। वहां उन्होंने राष्ट्रकुल के तत्कालीन राज्य मंत्री डी.रिवोल्टासहितराष्ट्रमंडलके42 देशों के प्रतिनिधियों के हाथ में वह दस्तावेज थमा दिया। अचानक अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्पफोट हुआ। वह कोल्हान राष्ट्र से सम्बंधित ज्ञापन था। उस ज्ञापन में के.सी. हेम्ब्रम सहित कोल्हान के 13 नेताओं के हस्ताक्षर थे। भारत सहित कई देशों के सत्ताधीश चौंक उठे। उस ज्ञापन में कहा गया कि ‘स्वतंत्र कोल्हान राष्ट्र’ की हैसियत से कोल्हान के लोग राष्ट्रमंडल और ब्रिटेन की सत्ता के साथजुड़नाचाहतेहैं।कोल्हानसरकारब्रिटेनऔरराष्ट्रमंडलकेप्रतिवफादारहै। तब अविभाजित बिहार की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले नेताओं को ‘राष्ट्रद्रोही’ करार दिया। उन पर राष्ट्रद्रोह के मुकदमे चलाये गये। नारायण जोंको, क्राइस्ट आनंद टोपनो और मुर्गी अंगारिया को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन कोल्हान रक्षा संघ के महासचिव के.सी. हेम्ब्रम और अन्य नेता भूमिगत हो गये। बाद में टोपनो और नारायण जोंको जमानत पर रिहा किये गये। पुलिस के.सी. हेम्ब्रम के पीछे पड़ी रही लेकिन उनको पकड़ नहीं पायी। दो-तीन साल तक कोल्हान की हवा गर्म रही। वहां खूब मारकाट मची। कोल्हान रक्षा संघ और पुलिस के बीच भिड़ंत भी हुई। मामले की जांच-पड़ताल के बाद संसद में केंद्र सरकार ने कहा कि विदेशी ताकतें बिहार के कोल्हान क्षेत्र में ‘कोल्हानिस्तान’ के नाम पर अलगाववादी ताकतों को हवा दे रही हैं। कोल्हान रक्षा संघ को आतंकवादी गिरोह करार दिया गया। 1986 में कोल्हान आंदोलन की असलियत का खुलासा करने का प्रयास खुद के.सी. हेम्ब्रम ने किया। उन्होंने राष्ट्रपति को फरवरी, 1986 में पत्र लिखा। उन्होंने लिखा कि वह भारत की भौगोलिक सीमा के बाहर न कोई कोल्हानिस्तान बना रहे हैं और न उसकी मांग करते हैं। उन्होंने अपने पत्र में लिखा -” वस्तुत: हम ब्रिटिश राज्य से आज तक कोल्हान क्षेत्र में प्रशासन के लिए कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट नाम से प्रचलित और अविकल रूप से जारी ‘मानकी-मुंडा प्रथा’ की संवैधनिक एवं कानूनी स्वीकृति के लिए जनसंघर्ष कर रहे हैं।” हेम्ब्रम ने राष्ट्रपति को सूचना दी कि भारतीय संविधान में मानकी-मुंडा प्रणाली को स्वीकृति नहीं दी गयी है, जबकि राज्य सरकार की अधिसूचनाओं में इसी प्रणाली के तहत मालगुजारी वसूलने के आदेश दिये जाते हैं। विल्किंसन रूल के नाम से जाना जाने वाला कानून आज भी कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट के तहत लागू है। कानून ज्यों का त्यों लागू है लेकिन संविधान में इसकी चर्चा नहीं है। बाद में 21 मई, 1988 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कोल्हान क्षेत्र का दौरा कर हाट गम्हरिया में ऐलान किया कि उनकी सरकार कोल्हान में परम्परागत मानकी-मुंडा प्रणाली को पुनर्जीवित करेगी। राज्य की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार भी तब कुछ नरम हुई। हेम्ब्रम सहित ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले अन्य नेताओं पर चलाये जा रहे राष्ट्रद्रोह के मुकदमें वापस लेने की तैयारी शुरू हुई लेकिन मामला धरा का धरा रह गया। 1989 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस हार गयी। 1990 के बिहार विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस हार गयी। कोल्हान रक्षा संघ के नेताओं ने जनता दल का दामन थामा लेकिन कोल्हान में न मानकी-मुंडा प्रथा की वैधानिकता का मामला सुलझा और न भूमिगत के.सी. हेम्ब्रम बाहर आये। आज हेम्ब्रम फरारी के आरोप से मुक्त हैं लेकिन कोल्हान में मानकी-मुंडा प्रणाली के समानांतर पंचायत प्रणाली के नाम पर जारी बीडीओ व सीओ राज खत्म नहीं हुआ। आज भी वहां बी.डी.ओ.-सी.ओ का राज चल रहा है और मानकी-मुंडा का भी। यानी कुल मिला कर किसी का राज ही नहीं चल रहा। सिर्फ दो प्रणालियां आपस में टकरा रही हैं और आदिवासियों को यह बोध करा रही हैं कि ‘यह टक्कर ही राज के चलने का प्रमाण है, भले कोई काज न हो। |